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________________ [ x ] आसन, बन्ध, मुद्रा षट्कर्म कुम्भक, पूरक, रेचक आदि बाह्य अंगों का विस्तार से विश्लेषण किया है। घेरण्ड संहिता में तो आसनों की संख्या अत्यधिक बढ़ गई है। गीर्वाण पिरा में ही नहीं अपितु प्रान्तीय भाषाओं में भी योग पर अनेक ग्रन्थ लिखे गये हैं । मराठी भाषा में गीता पर ज्ञानदेव रचित ज्ञानेश्वरी टीका में योग का सुन्दर वर्णन है.। कबीर का बीजक ग्रन्थ योग का श्रेष्ठ ग्रन्थ है। बौद्ध परम्परा में योग के लिए समाधि और ध्यान शब्द का प्रयोग मिलता है। बुद्ध ने अष्टांगिक मार्ग को अत्यधिक महत्व दिया है । बोधित्व प्राप्त करने के पूर्व श्वासोच्छवास निरोध की साधना प्रारंभ की थी। किन्तु समाधि प्राप्त न होने से उसका परित्याग कर अष्टांगिक मार्ग को अपनाया । अष्टांगिक मार्ग में समाधि के ऊपर विशेष बल दिया गया है। समाधि या निर्वाण प्राप्त करने के लिए ध्यान के साथ अनित्य भावना को भी महत्व दिया है। तथागत बुद्ध ने कहा- "भिक्षो ! रूप अनित्य है, वेदना अनित्य है, संज्ञा अनित्य है, संस्कार अनित्य है, विज्ञान अनित्य है। जो अनित्य है वह दुःखप्रद है। जो दुःखप्रद है वह अनात्मक है। जो अनात्मक है वह मेरा नहीं । वह मैं नहीं हूँ। इस तरह संसार के अनित्य स्वरूप को देखना चाहिए।" जैन आगम साहित्य में योग शब्द का प्रयोग हआ है। किन्तु योग शब्द का अर्थ जिस प्रकार वैदिक और बौद्ध परम्परा में हुआ है, उस अर्थ में योग शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है। वहाँ योग शब्द का प्रयोग मन, वचन, काया की प्रवृत्ति के लिए हुआ है। वैदिक और बौद्ध परम्परा में जिस अर्थ को योग शब्द व्यक्त करता है, उस अर्थ को जैन परम्परा में तप और ध्यान व्यक्त करते हैं । ध्यान का अर्थ- मन, वचन और काया के योगों को आत्म चिन्तन में केन्द्रित करना । ध्यान में तन, मन और वचन को स्थिर करना होता है। केवल सांस लेने की छूट रहती है, सांस के अतिरिक्त सभी शारीरिक क्रियाओं को रोकना अनिवार्य है। सर्वप्रथम शरीर की विभिन्न क्रियाओं को रोका जाता है। वचन को नियन्त्रित किया जाता है, और उसके पश्चात् मन को आत्म-स्वरूप में एकाग्र किया जाता है। प्रस्तुत साधना को हम द्रव्य-साधना और भाव-साधना कह सकते हैं । तन और वचन की साधना द्रव्य साधना और मन की साधना भाव साधना है। जैन परम्परा में हठयोग को स्थान नहीं दिया गया है और न प्राणायाम को आवश्यक माना है। हठयोग के द्वारा जो नियंत्रण किया जाता है, उससे स्थायी लाभ नहीं होता, न आत्म-शुद्धि होती है और न मुक्ति ही प्राप्त होती है। स्थानांग, समवायांग, भगवती, उत्तराध्ययन आदि आगम साहित्य में ध्यान लक्षण और उनके
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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