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________________ ७० / योग-प्रयोग-अयोग छमस्थ वीर्य के तीन स्तर है - . १. द्रव्य वीर्य का स्तर-यह स्थूल औदारिक शरीर के साथ क्रियान्वित होता है। २. भाववीर्य का स्तर-यह सूक्ष्म तैजस शरीर के साथ क्रियान्वित होता है। ३. आन्तरिक वीर्य का स्तर-यह अति सूक्ष्म कार्मण शरीर के साथ क्रियान्वित होता है। १. औदारिक वीर्य का मन और इन्द्रिय जगत से सम्बन्ध होता है। शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श से इन्द्रिय विषयोन्मुख होती है और मन उसमें प्राण जगाता रहता है। इन विषयों की सम्पूर्ण प्रवृत्ति मन के विचारों से, वाणी के प्रचार से और शरीर, बुद्धि या चेतना के सक्रियता से सम्पादित होती है। विषयात्मक प्रवृत्ति का नियन्त्रण किया जा 'सकता है जिससे भाव,वीर्य का स्तर जागृत होता है। साधक गहराई में उतरता है तो स्थूल शरीर से सूक्ष्म शरीर में प्रविष्ठ होता है, सूक्ष्म शरीर तैजस् शरीर है । बाह्य प्रवृत्ति का नियन्त्रण किया जा सकता है क्योंकि वह हमारी परिस्थिति के तथा प्रक्रिया के अनुरूप प्रवर्तमान रहती है। मानसिक प्रवृत्ति, वाचिक प्रवृत्ति, कायिक प्रवृत्ति जो क्रियमान है, तनाव युक्त है, उसे तनाव मुक्त कर सकते हैं किन्तु सूक्ष्म तैजस् शरीर भाव वीर्य का स्तर है। भाव वीर्य की उत्पत्ति कषाय से होती है, और कषाय रागात्मक और द्वेषात्मक भाव से होता है। भाव जब क्रियात्मक रूप धारण करता है तब स्थूल शरीर में दृश्यमान होता है किन्तु जब भाव रूप में है तब सूक्ष्म शरीर में विद्यमान है। वहाँ नियन्त्रण की अपेक्षा नहीं होती यहाँ जो भी होता है स्वाभाविक होता है । जो स्वाभाविक होता है वह उपयोग वीर्य है। मनोवैज्ञानिक किसी भी व्यक्ति के मानसिक स्तर को जांच सकता है। अपराधों की खोज करवा सकता है। जैसे-वैज्ञानिकों के उपकरण मशीन वगैरह से, डकैती, चोरी आदि का ग्राफ उतरता है और माल, व्यक्ति आदि की जाच होती है। कुत्तों द्वारा अपराधियों को पकड़ा जाना इत्यादि में भी भाव का प्राधान्य माना जाता है। भाववीर्य आंतरिक वीर्य के स्तर से स्थूल है। आंतरिक वीर्य का सम्बन्ध कार्मण शरीर से है। कर्म शरीर है। कर्म शरीर में जो घटनाएं घटित होती हैं वह अति सूक्ष्म होती हैं, उस घटना का प्रभाव भाव पर होता है और भाव का प्रभाव मानसिक स्मृति पर होता है। इस प्रकार अतिसूक्ष्म के स्तर पर पहुँचा हुआ साधक इन्द्रियजन्य विषय भोग का मापदंड निकाल सकता है। जैसे आँखों का विषय रूप है और कानों का विषय शब्द है उनके लिए कोई फर्क नहीं आँखें भी सुन सकती हैं । कान भी देख सकते हैं। वैज्ञानिकों ने भी संशोधन किया है, उनके अनुसार भी फ्रीक्वेन्सी का अंतर
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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