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________________ १६२ : पंचलिंगीप्रकरणम् संताणस्स न नासो फलविरहा पुव्वपुव्वविरहोवि। संताणंतर कज्जे परलोगो भे न पाउण।। ६८।। संतानस्य न नाशः फलविरहात् पूर्वपूर्वविरहोऽपि। संतानान्तरकार्ये परलोकः भवतां न प्राप्नोति।। ६८।। सन्तान का नाश नहीं होता है, फलाभाव में पूर्व-पूर्व फलविरह भी होता सिद्ध। ज्ञान-प्रवाह संतान बिना यदि माने कार्य तो परलोक ही हो जाय असिद्ध ।। ६८।। ६८. (नैयायिकाभिमत मोक्ष का निराकरण करने के बाद माध्यमिक बौद्धाभिमत निर्वाण का निरसन करते हैं) फलाभाव से ज्ञान प्रवाह परम्परा का (संतान का) नाश नहीं होता है (यदि ऐसा मानते हैं) तो पूर्व-पूर्व क्षणवर्ती क्रिया में फलाभाव प्राप्त (का प्रसंग उपस्थित) होगा, तथा यदि (आपके मतानुसार) ज्ञान प्रवाह परम्परा के बिना कार्य होना मानते हैं तो परलोक प्राप्त (की सिद्धि) नहीं होता है। भावार्थ : तात्पर्य यह है कि ज्ञान सन्तान के नाश को ही यदि मोक्ष मानते हैं तो ऐसा मानने से दोष आता है क्योंकि सन्तान का कभी नाश नहीं होता है। फल (अन्त्य क्षण उत्तर क्षण का जन्म रूप फल है) के अभाव से पूर्व-पूर्व क्षण में भी यह दोष आएगा। यदि सन्तान के न होने पर भी कार्य होना माना जाएगा, तो भी आपके मत में परलोक प्राप्त नहीं होने का प्रसंग उपस्थित होगा अर्थात् उसकी सिद्धि नहीं होगी। इस गाथा में शास्त्रकार बौद्ध क्षणिकवाद का निरसन करते हैं।
SR No.023142
Book TitlePanchlingiprakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Beliya
PublisherVimal Sudarshan Chandra Parmarthik Jain Trust
Publication Year2006
Total Pages316
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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