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________________ ३८ : पंचलिंगीप्रकरणम् जइ हुज्जइ गुणो विसयाण को वि तित्थयरचक्किबलदेवा । जुत्तत्तणंपि विसए चएउं अब्भुट्ठिया कहं णु ।। १६।। यदि भवेत् गुणः विषयाणां कोऽपि तीर्थकर-चकिबलदेवाः। जीर्णतृणमिव विषयाः त्यक्तुं अभ्युत्थिताः कथं नु ।। १६ ।। यदि विषयों में होता गुण, क्यों त्यागते तीर्थकर, चक्री, बलदेव ?। जीर्णतृण सम त्याग विषयों को, क्यों करते आत्मोद्यम अनेक? ।। १६ ।। १६. यदि विषयों (अर्थात् विषयों के भोग) में कोई (एक) भी गुण होता तो तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव (आदि महापुरुष) इन्हें जीर्ण तृण (सूखे तिनके) के समान छोड़ने के लिये उद्यत (तैयार) कैसे होते? भावार्थ : यदि विषयों का, सेवन करने वालों के प्रति उपकारक होने का अतिशय रूप, कोई भी गुण होता तो ऋषभादि तीर्थकर, भरतादि चक्रवर्ती तथा अचलादि बलदेव आदि अनन्य भोगों के धनी क्योंकर उन भोगों को जीर्णतृणवत् त्यागने के लिये उद्यमशील होते ? जिस प्रकार अत्यन्त जीर्ण (सड़ी-गली) घास असार होने से उसे छोड़ने में किसी को कोई कष्ट नहीं होता है, उसी प्रकार विरक्त महात्माओं के लिये उन विषयों का त्याग भी किंचित् भी कष्टकर नहीं है। विषयों में रंचमात्र भी गुण नहीं होने से वे उन्हें हेय, व त्याज्य समझते हैं।
SR No.023142
Book TitlePanchlingiprakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Beliya
PublisherVimal Sudarshan Chandra Parmarthik Jain Trust
Publication Year2006
Total Pages316
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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