________________
44
संस्कृति के तत्त्व एवं ज्ञाताधर्मकथांग ऋण की इस अवधारणा की पृष्ठभूमि यह रही है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने सामाजिक नैतिक दायित्वों का निर्वाह करने में सदैव सजग रहे । इस सम्बन्ध में ‘भारतीय समाज एवं सामाजिक संस्थाएँ' नामक पुस्तक में कहा गया है कि'व्यक्ति दूसरों का इस दृष्टि से ऋणी है कि उन्होंने उसके विकास में अनेक रूपों में योग दिया है। उन सबके प्रति कर्त्तव्यों का पालन करके ही विभिन्न प्रकार के ऋणों से उऋण हो सकता है। इन ऋणों की अवधारणा के धरातल पर मानव में अनेक सद्गुणों, यथा- प्रेम, सहानुभूति, दया, उदारता, त्याग, आदर भावना, कर्त्तव्य परायणता का विकास हुआ है। 65 मेरे दृष्टिकोण से इन ऋणों में मातृ ऋण को शामिल न किया जाना एक बहुत बड़ी विसंगति कही जा सकती है, क्योंकि व्यक्ति के निर्माण में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका माता की होती है 12. पुनर्जन्म "
1
भारतीय संस्कृति और दर्शन में कर्म के परिणाम - प्रभाव को बहुत अधिक महत्व दिया गया है लेकिन शरीर विभिन्न योनियों के रूप में परिवर्तित होता रहता है, कर्मों के अनुसार जन्म की प्राप्ति होती है । उत्तराध्ययन में कहा गया है कि संसारी जीव विविध प्रकार के कर्मों का अर्जन कर विविध नाम वाली जातियों में उत्पन्न हो, संसार में भिन्न-भिन्न स्वरूप का स्पर्श कर सब जगह उत्पन्न हो जाते हैं। 7 यह जीव अपने कृत कर्मों के अनुसार कभी देवलोक में, कभी नरक में तो कभी असुरों के निकाय में उत्पन्न होता है 168
13. धर्म युद्धों की परम्परा"
युद्ध में धर्म का पालन करना अत्यन्त कठिन कार्य है। पाश्चात्य जगत की तो यह धारणा है कि- "Everything is fair in love and war. " यानी प्रेम और युद्ध में किया जाने वाला प्रत्येक कार्य उचित ही है किन्तु भारतीय संस्कृति इसे सही नहीं माना गया है, चूंकि हमारे यहाँ युद्ध भी धर्म की विजय के लिए अथवा सत्य की रक्षा के लिए हुए, अतः धर्म युद्धों की परम्परा भारतीय संस्कृति की विशिष्ट पहचान कही जा सकती है ।
निहत्थे, बालक, स्त्री, ब्राह्मण, वृद्ध, गौ और पीठ दिखाकर भाग जाने वाले व्यक्ति पर कभी भी वार नहीं किया जाता था । सूर्योदय के पूर्व और सूर्यास्त के पश्चात् युद्धों का नहीं होना, घेरकर आक्रमण नहीं करना, ललकारे बिना युद्ध नहीं करना आदि आदर्श सिद्धान्तों को ध्यान में रखकर युद्ध किए जाने की
57