________________
ज्ञाताधर्मकथांग का सांस्कृतिक अध्ययन फलतः प्राचीन धर्मग्रंथों में छिपे हुए शाश्वत मूल्यों और वस्तु सत्य को प्राचीन भाषा, शैली व अनुभूति सापेक्ष प्रयोगों से समझना कठिन व अरूचि उत्पादक कार्य हो गया है। अत: मुझे लगा कि आगमों के रहस्यों को उद्घाटित कर पाश्चात् संस्कृति से आई विकृतियों को दूर किया जाए। पाश्चात् संस्कृति ने जिस भौतिकवाद की प्रचण्ड आंधी को बढ़ावा दिया है उससे समाक्रांत भारतीय जन-जीवन के समक्ष अपने आगमिक सांस्कृतिक मूल्यों को प्रस्तुत करना आवश्यक है। अतः मैंने अपनी रूचि और क्षयोपक्षम के अनुरूप ज्ञाताधर्मकथांग को अपने शोध का विषय बनाया है। ज्ञाताधर्मकथांग की कथाओं में अन्तर्निहित सांस्कृतिक मूल्यों को जनभोग्य बनाना प्रस्तुत कृति की रचना का प्रमुख उद्देश्य है।
प्रस्तुत कृति को जैनागम, संस्कृति, भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीति, शिक्षा, कला, धर्म-दर्शन आदि विषयों पर आधारित पृथक्-पृथक् नौ अध्यायों में बाँटा है। अंत में उपसंहार के रूप में निष्पति को प्रस्तुत किया गया
प्रथम अध्याय 'जैनागम और ज्ञाताधर्मकथांग' में आगम शब्द का व्युत्पत्तिपरक अर्थ, परिभाषा और पर्यायवाची शब्दों का विवेचन कर जैनागमपरम्परा का संक्षिप्त निदर्शन प्रस्तुत किया गयाहै। आगम-परम्परा के अंतर्गत जैनागमों की पाटलीपुत्र, माथुरी, वल्लभी और देवर्धिगणि वाचनाओं का संक्षिप्त वर्णन किया गया है। तत्पश्चात् जैनागों की भाषा और विषय सामग्री बताते हुए श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा के परिप्रेक्ष्य में आगम-वर्गीकरण प्रस्तुत किया गया है।
'आगम' शब्द 'आ' उपसर्गपूर्वक 'गम्' धातु में 'घब' प्रत्यय लगने पर बनता है। परम्परा से प्राप्त सिद्धान्त और शब्द के अर्थ को आगम कहा गया है। इसीलिए आगमकार ने गुरु-परम्परा से जो चला आ रहा है, उसे आगम कहा है। आप्त वचन के लिए आगम शब्द प्रयुक्त हुआ है, अत: कोशकार ने शब्द अथवा शास्त्र को आगम की संज्ञा दी है।
इस अध्याय में जैन आगमों एवं व्याख्या ग्रंथों सहित प्राचीन ग्रंथों से आगम की लगभग तेरह परिभाषाओं का उल्लेख किया गया है, जो आगम को गत्यर्थक एवं ज्ञानात्मक सिद्ध करती है। भगवान महावीर ने ईसा पूर्व छठी शताब्दी में जनकल्याणार्थ जो उपदेश दिए उन्हें गणधरों ने गुंफित किया, वही गुंफित-संकलित रूप आज जैन आगमों के रूप में स्वीकार्य है।
328