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________________ ज्ञाताधर्मकथांग का सांस्कृतिक अध्ययन ये षडावश्यक मुनियों द्वारा नित्य किए जाते हैं। बाईस परीषह परीषह का तात्पर्य है- जो सहे जाएं। कर्मों की संवर और निर्जरा प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त करने के लिए परीषहों को मुनि अपने सम्यक ज्ञान, सम्यक दर्शन, सम्यक् चारित्र के आधार पर सहन करता है। इन परीषहों को सहन करने से साधक सांसारिक भोगों से निरासक्त बनता जाता है और साधनावस्था में मनुष्यकृत, तिर्यञ्चकृत अथवा देवकृत उपसर्गों को सहन करने का उसका सामर्थ्य भी बढ़ता जाता है। ज्ञाताधर्मकथांग में उल्लेख मिलता है कि मेघकुमार को उसके दीक्षा प्रसंग पर शुभकामनाएँ देते हुए जनसमुदाय कहता है- परीषह रूपी सेना का हनन करके, परीषहों और उपसर्गों से निर्भय होकर शाश्वत एवं अचल परमपद रूप मोक्ष को प्राप्त करो।39 परीषहों की संख्या बाईस बताई गई है240- 1. क्षुधा, 2. पिपासा, 3. शीत, 4. उष्ण, 5. दंशमशक, 6. अचेल, 7. अरति, 8. स्त्री, 9. चर्या, 10. निषधा, 11. शय्या, 12. आक्रोश, 13. बध, 14. याचना, 15. अलाभ, 16. रोग, 17. तृण-स्पर्श, 18. मल, 19. सत्कार-पुरस्कार, 20. प्रज्ञा, 21. अज्ञान, 22. अदर्शन। साधु इन सभी प्रकार के परीषहों को शान्ति और धैर्य से सहन करता है। उसे एक साथ अधिकतम उन्नीस परीषह सहन करने पड़ते हैं । शीत और उष्ण में से कोई एक तथा शय्या, चर्या और निषधा में से कोई एक परीषह होता है। देशकाल आदि के भेद से इन परीषहों की संख्या और भी अधिक हो सकती है। ज्ञानावरण के सद्भाव में प्रज्ञा और अज्ञान परीषह होते हैं। चारित्रमोह के सद्भाव में अचेल, अरति, स्त्री, निषधा, आक्रोश, याचना और सत्कार-पुरस्कार परीषह होते हैं। अट्ठारह पापस्थान जिस अशुभ प्रवृत्ति के द्वारा अशुभ कर्म (पाप) का बंधन होता है, उपचार से उस अशुभ प्रवृत्ति को पाप कह दिया जाता है। ज्ञाताधर्मकथांग में मेघमुनि अपने जीवन के अंतिम समय में अट्ठारह पापस्थानों का प्रत्याख्यान करते हैं, ये अट्ठारह पापस्थान241 हैं 1. प्राणातिपात, 2. मृषावाद, 3. अदत्तादान, 4. मैथुन, 5. परिग्रह, 6. 302
SR No.023141
Book TitleGnatadharm Kathang Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashikala Chhajed
PublisherAgam Ahimsa Samta evam Prakrit Samsthan
Publication Year2014
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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