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ज्ञाताधर्मकथांग का सांस्कृतिक अध्ययन धर्मचक्र रहना, 7. उनके ऊपर तीन छत्र रहना, 8. दोनों और श्रेष्ठ चंवर रहना, 9. आकाश के समान स्वच्छ स्फटिक मणि का बना हुआ पादपीठ वाला सिंहासन होना, 10. तीर्थंकर देव के आगे आकाश में इन्द्रध्वज का चलना, 11. अशोक वृक्ष का होना, 12. पीछे मुकुट के स्थान पर तेजोमंडल का होना तथा अंधकार होने पर दस दिशाओं में प्रकाश होना, 13. भूभाग का समतल होना, 14. कंटकों का अधोमुख होना, 15. ऋतुओं का अनुकूल होना, 16. संवर्तक वायु का एक योजन पर्यन्त क्षेत्र का शुद्ध हो जाना, 17. मेघ द्वारा रज का उपशान्त होना, 18. पुष्पों की वृष्टि होना, 19. अमनोज्ञ शब्द, रूप, गन्ध, रस एवं स्पर्श का न होना, 20. मनोज्ञ शब्द, रूप, गंध, रस एवं स्पर्श का होना, 21. योजनपर्यन्त सुनाई देने वाला हृदयस्पर्शी स्वर होना, 22. अर्धमागधी भाषा में उपदेश करना, 23. अर्धमागधी भाषा का उपस्थित, आर्य, अनार्य, द्विपद, चतुष्पद, मृग, पशु-पक्षी और सरिसृपों की भाषा में परिणत होना तथा उन्हें हितकारी, सुखकारी एवं कल्याणकारी प्रतीत होना, 24. अदया का अभाव होना, 25. अन्यतीर्थिकों का नतमस्तक होकर वंदना करना, 26. अरिहंत के समीप आकर अन्यतीर्थिकों का निरुत्तर होना, 27. पच्चीस योजन पर्यन्त चूहे आदि का उपद्रव न होना, 28. प्लेग आदि महामारी का उपद्रव न होना, 29. स्वसेना का विप्लव न करना, 30. अन्य राज्य की सेना का उपद्रव न होना, 31. अधिक वर्षा न होना, 32. वर्षा का अभाव न होना, 33. दुर्भिक्ष न होना, 34. पूर्वोत्पन्न उत्पात तथा व्याधियों का उपशान्त होना।
ज्ञाताधर्मकथांग में वर्तमान कालिक चौबीस तीर्थंकरों में से चार तीर्थंकरों (19वें मल्लीनाथ, 22वें अरिष्टनेमि, 23वें पार्श्वनाथ व 24वें महावीर) का उल्लेख मिलता है। मल्लीनाथ के शासनकाल में चालीस हजार साधु, पचपन हजार साध्वियाँ, एक लाख चौरासी हजार श्रावक और तीन लाख पैंसठ हजार श्राविकाएँ थी। अरिष्टनेमि के शासनकाल में अठारह हजार साधु, चालीस हजार साध्वियाँ थी।” पार्श्वनाथ के समवसरण में सोलह हजार साधु और अड़तीस हजार साध्वियाँ थी।
ज्ञाताधर्मकथांग में ज्ञान-मीसांसा
ज्ञान आत्मा का स्वाभाविक गुण है। ज्ञान के अभाव में आत्मा की कल्पना ही नहीं की जा सकती। आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है कि व्यवहारनय से आत्मा
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