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ज्ञाताधर्मकथांग का सांस्कृतिक अध्ययन आधारित थे। पशुओं को सम्पत्ति के रूप में स्वीकार किया गया था। जिस व्यक्ति या परिवार के पास जितने अधिक पशु होते वह उतना ही अधिक धनवान
और सम्पन्न समझा जाता था। उपासकदशांग के दसों श्रावकों के पास हजारों पशु थे, जिनमें गोधन प्रमुख था पशुपालन ग्रामीण क्षेत्रों तक ही सीमित नहीं था, नगरों में भी उनका आधिक्य था। राजगृह नगर में रहने वाले धन्यसार्थवाह और द्वारका नगरी में रहने वाली थावच्या गाथापत्नी के पास बहुसंख्यक पशु थे।"
पशुपालन कृषि, दूध, यातायात, चमड़े और मांस के लिए किया जाता था। कृषि में पशुओं का बहुविध उपयोग किया जाता था। बैल हल चलाने, रहट चलाने, कोल्हू चलाने तथा शकट व रथ खींचने के उपयोग में आते थे। दूध से दधि, नवनीत, तक्र और घी की प्राप्ति होती थी, इन्हें गोरस कहा जाता था, जो पौष्टिक माना जाता था। व्यापारार्थ जाते समय अर्हन्नक गोरस आदि पौष्टिक पदार्थों को भी अपने साथ लेकर गया।
जैन आगमों में यातायात के लिए भी पशुओं का बड़ा महत्व बताया गया है। माल और सवारी वहन करने के लिए हाथी, घोड़े और बैल के प्रयोग का उल्लेख ज्ञाताधर्मकथांग में मिलता है। कालिक द्वीप के घोड़े बहुत प्रसिद्ध थे। वे जातिमान घोड़े के समान आकीर्ण, विनीत, प्रशिक्षित व सहनशील तथा विविध रंगों के थे। पशुओं के चारे के लिए गाँव की बाह्य सीमा पर चारागाह थे।" कुक्कुट-मयूरपालन
___ आलोच्यग्रंथ में कुक्कुट व मयूरपालन का व्यवसाय के रूप में स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है। जिनदत्त व सागरदत्त ने मयूरी के अंडों को मुर्गी के अंडों के साथ रखा, तत्पश्चात् मयूरी के बच्चे को नृत्य आदि कला में पारंगत करने के लिए मयूर पोषकों को दे दिया, इससे स्पष्ट है कि कुक्कुट व मयूरी-पालन एक व्यवसाय के रूप में प्रचलित थे। पूंजी का लेन-देन (ब्याज पर लेन-देन)
उद्योग और व्यवसाय को प्रारंभ करने और उसका सफलतापूर्वक संचालन करने के लिए पूंजी की प्रचुरता अनिवार्य है। ज्ञाताधर्मकथांग से ज्ञात होता है कि क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य, सुवर्ण, धन-धान्य, द्विपद, चतुष्पद, दास-दासी, कुप्य (गृह सम्बन्धी उपकरण), धातु, पशु आदि मनुष्य की सम्पत्ति माने जाते थे। अन्तकृदशांग में पूंजी के आधार पर धनवान लोगों का वर्गीकरण किया गया है। भगवतीसूत्र से
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