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आधुनिक जगत के लिए भारतीय संस्कृति की विशाल धरोहर को उद्घाटित करने में सक्षम है। धर्म-दर्शन का प्रमुख ग्रंथ होते हुए भी भारतीय समाज व संस्कृति के कई तथ्य इसमें उजागर हुए हैं। इस ग्रंथ की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता इसमें वर्णित विषयों का आज के वैज्ञानिक युग में उपयोगी होना है। इसमें कई ऐसे विषय विवेचित हैं, जिनका आज के विज्ञान व मनोविज्ञान के साथ गहरा सम्बन्ध प्रतीत होता है। यद्यपि गहन व विशद विषयवस्तु वाले इस ग्रंथ का मूल्यांकन करना कठिन कार्य है तथापि निम्नांकित बिन्दुओं के आधार पर इसकी उपयोगिता व महत्त्व को संक्षेप में प्रस्तुत किया जा रहा है। मंगलाचरण
ग्रंथ का प्रारंभ मंगल पाठ से किया गया है। मंगल वाक्यों के रूप में
नमो अरिहंताणं। नमो सिद्धाणं। नमो आयरियाणं। नमो उवज्झायाणं। नमो लोए सव्वसाहूणं। नमो बंभीए लिवीए। - (1.1.1)
का प्रयोग हुआ है। इस मंगलाचरण के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए मधुकर मुनि ने लिखा है कि इसकी शक्ति अमोघ है, इसका प्रभाव अचिन्त्य है। इसकी साधना व आराधना से लौकिक व लोकोत्तर सभी प्रकार की उपलब्धियाँ मिलती हैं। इस मंगलाचरण के अतिरिक्त ग्रंथ के 15वें, 17वें, 23वें तथा 26वें शतक के प्रारंभ में भी 'नमो सुयदेवयाए' पद के द्वारा मंगलाचरण किया गया है। ग्यारह अंग-ग्रंथों में से केवल भगवतीसूत्र में ही इस प्रकार के मंगलवाक्यों का प्रयोग हुआ है। नवकार मंत्र पहली बार इस ग्रंथ में लिपिबद्ध है। आचार्य अभयदेवसूरि ने नमस्कार महामंत्र को भगवतीसूत्र का अंग मानते हुए ही व्याख्या की है। आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने पंचनमस्कार महामंत्र को सर्वसूत्रान्तर्गत माना है। उनके अनुसार पंच नमस्कार करने के पश्चात् ही आचार्य अपने मेधावी शिष्यों को सामायिक आदि श्रुत पढ़ाते हैं। इस प्रकार इस ग्रन्थ के माध्यम से नवकार मंत्र की प्राचीनता स्वयंसिद्ध है। वस्तुतः यह तीर्थंकर द्वारा प्ररूपित व गणधरों द्वारा सूत्रबद्ध है। इस सम्बन्ध में आचार्य मधुकर मुनि ने व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र की प्रस्तावना में विशेषतः प्रकाश डाला है।
भगवतीसूत्र का महत्त्व
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