SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 70
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ करता है अतः वह अन्य प्राणियों को दुःख नहीं पहुँचाता है, उसके पापकर्म उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं जैसे सूखी घास अग्नि में डालने पर जलकर भस्म हो जाती है। सातवें शतक के प्रथम उद्देशक में उल्लेखित है कि जिन व्यक्तियों में कषाय की प्रधानता होती है, उन्हें साम्परायिक क्रिया लगती है तथा जिनमें कषाय का अभाव होता है, उन्हें ईर्यापथिक क्रिया लगती है। प्रस्तुत आगम में कर्मबन्ध होने की कारणभूत चेष्टा रूप क्रिया पर विशेष प्रकाश डाला गया है। कषाय का अभाव होने पर यदि किसी प्राणी की हिंसा भी हो जाती है तो ईर्यापथिक क्रिया ही लगती है। इस प्रकार भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से कर्मबंध व क्रिया की विवेचना इसमें की गई है। कर्मबंध के साथ कर्मों की निर्जरा का भी भगवतीसूत्र में विवेचन मिलता है। सकाम निर्जरा का विवेचन करते हुए कहा गया है- 'श्रमण सकाम निर्जरा से कर्मों को शीघ्र नष्ट कर देता है जबकि नैरयिक जीव महावेदना का अनुभव करके भी महानिर्जरा वाला नहीं होता है।' लोक-परलोक विषयक विवेचन __ भगवतीसूत्र में लोक व परलोक दोनों पर ही चर्चा की गई है। प्रस्तुत ग्रन्थ में भगवान महावीर ने पंचास्तिकाय लोक व्यवस्था का निरूपण किया है। ये पाँच अस्तिकाय हैं - धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय लोक के स्वरूप को द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव की दृष्टि से स्पष्ट किया है। क्षेत्रलोक की दृष्टि से लोक के तीन प्रकार बताये हैं (1) अधोलोक (2) तिर्यग्लोक (3) ऊर्ध्वलोक। इन तीनों लोक के आकार का अलग-अलग विवेचन करते हुए सम्पूर्ण लोक के आकार को 'त्रिशरावसम्पुटाकार' बताया है। इसके अतिरिक्त अष्टविध लोक-स्थिति, लोक की विशालता, लोक का मध्य भाग, अलोक का आकार, लोक-अलोक में जीव की प्ररूपणा आदि विषयों पर विवेचन किया गया है। लोक विवेचन में भरतादि क्षेत्र, कर्मभूमिक, अकर्मभूमिक क्षेत्र, वहाँ रहने वाले प्राणियों की गति, लेश्या, कर्मबंध आदि पर प्रकाश डाला गया है। परलोक विवेचन में देवलोकों व नरकों तथा उनमें रहने वाले प्राणियों की स्थिति, आयु आदि पर चर्चा मिलती है। देवों के चार भेदों में भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क व वैमानिक देवों का उल्लेख है। नारक भूमियों के सात प्रकार बताये हैं1. रत्नप्रभा 2. शर्कराप्रभा 3. बालुकाप्रभा 4. पंकप्रभा 5. धूमप्रभा 6. तमप्रभा 7. महातम प्रभा 44 भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन
SR No.023140
Book TitleBhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy