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अनगार की चर्चा में कहा गया है कि राग-द्वेष कर्मबंधन व संसार परिभ्रमण का प्रमुख कारण है। 1
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भगवतीसूत्र में श्रमण जीवन के प्रमुख सद्गुणों का प्रतिपादन है । श्रमण को विनम्र होना चाहिये, उसकी इच्छाएँ अल्प होनी चाहिये तथा उसे क्रोधादि कषायों से विमुक्त होना चाहिये । श्रमण के आचार के साथ-साथ श्रमण जीवन की महिमा का प्रतिपादन करते हुए श्रमण के सुख को अनुत्तर विमानवासी देवों के सुख से भी श्रेष्ठ
माना है। श्रमण निर्ग्रथ के पुलाक, बकुश, कुशील, निर्ग्रथ व स्नातक ये पाँच मुख्य प्रकार बताते हुए इनके भेद - प्रभेदों की भी प्ररूपणा की है। श्रमण को भिक्षा देने से पाप-पुण्य या निर्जरा में से क्या प्राप्ति होती है, इस विषय पर विवेचन करते हुए कहा गया है कि श्रमणों को निर्जीव व दोषरहित आहार देने वाले श्रमणोपासक के पापकर्म अल्पतर होते हैं तथा बहुत निर्जरा होती है । " स्कन्दक परिव्राजक के प्रकरण में श्रमण की जीवनचर्या का पूरा चित्र उपस्थित हुआ है। स्कन्दक मुनि तप व संयम द्वारा अपने शरीर को कृश कर, एक मास की संलेखना करके, त्यागरूप अनशन करके, आलोचना व प्रतिक्रमण कर समाधि प्राप्त कर, काल प्राप्त करते हैं ।
भगवतीसूत्र में श्रमण जीवन के प्रमुख आचार 'तप' के दो प्रमुख प्रकारबाह्यतप व आभ्यन्तर तप बताये हैं । बाह्य व आभ्यान्तर तप के छः छः भेदों का विस्तार से विवेचन किया गया है। प्रत्याख्यान पर चर्चा करते हुए सुप्रत्याख्यान व दुष्प्रत्याख्यान का वर्णन भी ग्रंथ में है। प्रत्याख्यान का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए कहा है कि प्रत्याख्यानरहित मरण प्राप्त व्यक्ति नरक व तिर्यंच योनि में उत्पन्न होते हैं।12 श्रमण जीवन में जागरूक रहते हुए भी दोष लगना स्वाभाविक है। इन दोषों की शुद्धि के लिए प्रायश्चित का विधान किया गया है। प्रायश्चित के लिए आलोचना को जरूरी बताया गया है। आलोचना के दस दोषों व दस गुणों का विवेचन भी इस ग्रंथ में उपलब्ध है। परीषह चिन्तन में 22 परीषहों का उल्लेख करते हुए यह स्पष्ट किया गया है कि किस कर्म के उदय से कौन से परीषह उत्पन्न होते हैं।
ग्रंथ में जहाँ श्रमण के आचार-विचार, चर्या, तप, प्रायश्चित, परीषहों आदि पर विस्तार से विचार-विमर्श हुआ है, वहीं श्रावकाचार में बारह व्रतों, पौषध, प्रत्याख्यान आदि पर भी संक्षेप में प्रकाश डाला गया है ।
कर्मबंध व क्रिया - विवेचन
जैन धर्म व दर्शन के आधारभूत सिद्धान्त कर्मवाद पर भगवतीसूत्र में विशद रूप से विचार किया गया है । कर्म प्रकृति के आठ भेद किये गये हैं 13
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भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन
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