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भगवतीसूत्र व अन्य आगम ग्रंथ
भगवतीसूत्र व आचारांग ___अर्धमागधी आगम साहित्य के प्रथम ग्रंथ आचारांग को अंगों का सार कहा है। इसमें श्रमणों के आचार व जीवनचर्या पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। द्वितीय अध्याय में भोगों के प्रति आसक्ति, उसके निमित्त होने वाले आरंभ-सारंभ के परित्याग, ममत्वभाव तथा विषय-कषाय को छोड़कर अनासक्त जीवन जीने का उपदेश दिया गया है। अनगार का लक्षण कपट रहित बताया गया है। कामभोगों में गिद्ध व आसक्त व्यक्ति के लिए कहा गया है कि वह बारबार इस संसार में चक्कर काटता है। आचारांग मे श्रमणों की भिक्षावृत्ति आदि का विस्तृत विवेचन किया गया है। भिक्षुओं के शुद्ध आहार की एषणा का वर्णन करते हुए कहा गया है कि अनगार आधाकर्मादि दोष-युक्त आहार का परिवर्जन कर निर्दोष आहार के लिए भिक्षाचरी करें। आचारांग चूला का प्रथम 'पिण्डैषणा' नामक अध्ययन भिक्षु व भिक्षुणियों को आहार-शुद्धि का ज्ञान कराता है। शुद्ध-आहार के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए वहाँ कहा गया है कि प्रासुक व एषणीय-आहार का सेवन करने वाला श्रमण संसार को पार कर जाता है।
भगवतीसूत्र आचारांग की तरह पूर्णरूप से श्रमणों के आचार-व्यवहार को प्रतिपादित करने वाला ग्रंथ तो नहीं है, किन्तु इसमें श्रमणों के आचार-विचार पर यत्र-तत्र चर्चा अवश्य मिलती है। अल्प-इच्छा, अमूर्छा, अनासक्ति, अप्रतिबद्धता, अक्रोध, अमान, अमाया व अलोभ को श्रमणों के लिए प्रशस्त बताया है। संवृत व असंवृत अनगार के प्रसंग में कहा गया है कि रागद्वेष से ग्रसित अनगार तीव्र कर्मबन्धन करता है और बार-बार इस संसार मे परिभ्रमण करता है। भगवतीसूत्र में अंगार दोष, धूम दोष व संयोजना दोष से युक्त तथा इन दोषों से विमुक्त आहार का विवेचन है। साधु को उसी तरह आहार करना चाहिये जिस तरह सर्प बिल में (सीधा) प्रवेश करता है। आचारांग की तरह भगवतीसूत्र में भी यह प्रतिपादित है कि प्रासुक व एषणीय आहार का सेवन करने वाला श्रमण संसार को पार कर जाता है।
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