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कितने ही विमात्रा से वेदना वेदते हैं। कर्म व्यवस्था के ये चारों प्रधान अंग हैं। इनका निर्माण एक साथ ही होता है। प्रदेशबंध के साथ ही स्वभाव, काल-मर्यादा व फलशक्ति का भी निर्माण हो जाता है। पुरुषार्थ एवं कर्म परिवर्तन __ जैनदर्शन कर्म परिवर्तन के सिद्धान्त को मानता है। अशुभ व शुभ दोनों प्रकार की भावधारा के साथ कर्म की अवस्था में परिवर्तन होता रहता है। भगवतीसूत्र में कर्मवाद व पुरुषार्थ दोनों को ही महत्त्व दिया गया है। कर्म पुरुषार्थ के द्वारा (आत्मकृत) किये जाते हैं। पुरुषार्थ के द्वारा किये हुए कर्म को बदला भी जा सकता है। ग्रंथ में पुरुषार्थ व कर्म परिवर्तन के संबंध को बताने वाले कुछ नियम
प्रयुक्त हुए हैं।
1. उदीरणा, 2. अपवर्तना, 3. उद्वर्तना, 4. संक्रमण, 5. निकाचन भगवईभाष्य+8 में इनकी व्याख्या इस प्रकार की गई है
उदीरणा- जो कर्म पुद्गल अनुदित हैं, उनका परिणाम विशेष द्वारा उदयप्राप्त कर्मदलिकों में प्रवेश कर देना।
अपवर्तना- वीर्य विशेष के द्वारा कर्म की स्थिति व अनुभाग को कम करना, अपवर्तना है।
उद्वर्तना- वीर्य विशेष द्वारा कर्म की स्थिति व अनुभाग को बढ़ा देना, उद्वर्तना है।
संक्रमण- वीर्य विशेष के द्वारा सजातीय कर्म-प्रकृतियों का एक दूसरे में संक्रांत होना। इसमें प्रकृति, स्थिति, प्रदेश व अनुभाग ये चारों एक रूप से दूसरे रूप में संक्रात हो जाते हैं। जैसे कोई व्यक्ति सातावेदनीय कर्म का अनुभव कर रहा है, उस समय उसके अशुभ कर्म परिणति बलवान हो गई। परिणामस्वरूप सातावेदनीय असातावेदनीय में संक्रांत हो गया। किन्तु, यहाँ यह प्रश्न उठता है कि यदि सब कुछ पुरुषार्थ से ही हो जाता है तो कर्म की महत्ता क्या होगी? अतः भगवान् महावीर ने इस विरोध का भी परिहार किया। इसके लिए भी भगवतीसूत्र में निकाचन के नियम का उल्लेख हुआ है।
निकाचन- वीर्यविशेष द्वारा कर्म को उस अवस्था में व्यवस्थापित करना, जो उद्वर्तना आदि किसी कारण द्वारा बदला न जा सके; जो अवश्य भोगा जाय। अर्थात् जिस रूप में कर्म बांधा जाय उसे उसी रूप में भोगना निकाचन अवस्था है।
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भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन