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________________ धर्म व दर्शन मानव जीवन की समस्याओं के समाधान के लिए अनिवार्य हैं। जब व्यक्ति इन समस्याओं का गहराई से चिन्तन करता है तो दर्शन का जन्म होता है और जब उसी चिन्तन का प्रयोग जीवन में करता है तो धर्म का जन्म होता है । ऐतिहासिक दृष्टि से धर्म व दर्शन की उत्पत्ति का पता लगाना कठिन कार्य है। यह बात तो अनंत ज्ञानी ही जान सकते हैं । किन्तु, प्रत्येक धर्म के सिद्धान्तों व उपदेशों का प्रचार कुछ धार्मिक पुरुषों द्वारा किया जाता है, वे ही उनके प्रवर्तक कहलाते हैं। वहीं से किसी भी धर्म का इतिहास व परम्परा का जन्म होता है । तीर्थंकर-परम्परा जैन परम्परा के अनुसार कालचक्र उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी दो भागों में विभक्त है। पहले उत्सर्पिणी काल था अब अवसर्पिणी काल चल रहा है अवसर्पिणी के समाप्त होने पर पुनः उत्सर्पिणी कालचक्र शुरु होगा। इस प्रकार अनादिकाल से यह चक्र चल रहा है और अनंतकाल तक चलेगा। उत्सर्पिणी में सभी भाव उन्नति को प्राप्त होते हैं और अवसर्पिणी में ह्रास को । इस अवसर्पिणी काल में अब तक 24 तीर्थंकर हो चुके हैं। प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव हैं और अन्तिम तीर्थंकर वर्धमान महावीर हुए हैं। भगवतीसूत्र' में इस अवसर्पिणी काल के 24 तीर्थंकरों के नामों का उल्लेख इस प्रकार किया गया है 2. अजित 4. अभिनंदन 8. शशि 12. वासुपूज्य 16. शान्ति 20. मुनिसुव्रत 24. वर्धमान 1. ऋषभ 5. सुमति 9. पुष्पदंत 13. विमल तीर्थंकर व आगम-परम्परा 17. कुन्थु 21. नमि 6. सुप्रभ 10. शीतल 14. अनन्त 3. सम्भव 7. सुपार्श्व 11. श्रेयांस 15. धर्म 19. मल्लि 23. पार्श्व 18. अर 22. नेमि जैन अनुश्रुति के अनुसार पहले कल्पकाल में भोगभूमि थी, यहाँ के निवासी अपनी जीवन-यात्रा कल्प वृक्षों से चलाते थे। धीरे-धीरे जनसंख्या बढ़ी, साथ ही तीर्थंकर व आगम - परम्परा 3
SR No.023140
Book TitleBhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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