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________________ समाधिमरण की विधि ” भगवतीसूत्र में स्कन्दकमुनि के प्रकरण में उनके द्वारा संलेखनापूर्वक पादपोपगमन-अनशन करके समाधि-मरण प्राप्त करने का पूरा वर्णन किया गया है। इससे संलेखना, संथारा, अनशन व समाधिमरण तक की पूरी यात्रा का विवरण स्पष्ट हो जाता है । 'स्कन्दकमुनि ने भगवान् महावीर से संथारा करके पादपोपगमन अनशन करने की आज्ञा माँगी । भगवान् महावीर द्वारा आज्ञा प्रदान की जाने पर वे अत्यन्त प्रसन्न व हर्षित हुए। फिर खड़े होकर उन्होंने श्रमण भगवान् महावीर की तीन बार दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा की और वन्दना - नमस्कार करके स्वयमेव पाँच महाव्रतों का आरोपण किया । फिर श्रमण- श्रमणियों से क्षमायाचना की, और तथारूप योग्य कृतादि स्थविरों के साथ शनै: शनै: विपुलाचल पर चढ़े। वहाँ मेघ-समूह के समान काले, देवों के उतरने योग्य स्थानरूप एक पृथ्वी - शिलापट्ट की प्रतिलेखना की तथा उच्चार - प्रस्त्रवणादि परिष्ठापनभूमि की प्रतिलेखना की । ऐसा करके उस पृथ्वीशिलापट्ट पर डाभ का संथारा बिछाकर, पूर्वदिशा की ओर मुख करके, पर्यंकासन से बैठकर, दसों नख सहित दोनों हाथों को मिलाकर मस्तक पर रखकर, ( मस्तक के साथ) दोनों हाथ जोड़कर इस प्रकार बोले- ‘अरिहन्त भगवन्तों से लेकर जो मोक्ष को प्राप्त हो चुके हैं, उन्हें नमस्कार हो । अविचल शाश्वत सिद्ध स्थान को प्राप्त करने की इच्छा वाले श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को नमस्कार हो । (अर्थात् 'नमोत्थुणं' के पाठ का दो बार उच्चारण किया) तत्पश्चात् कहा- 'वहाँ रहे हुए भगवान् महावीर स्वामी को यहाँ रहा हुआ मैं वन्दन करता हूँ। वे यहाँ रहे हुए मुझको देखें ।' ऐसा कहकर भगवान् को वन्दना - नमस्कार किया । वन्दना - नमस्कार करके वे इस प्रकार बोले- 'मैंने पहले भी श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास यावज्जीवन के लिए सर्व प्राणातिपात आदि अठारह पापों का त्याग किया था । इस समय भी श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास यावज्जीवन के लिए सर्व प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक अठारह ही पापों का त्याग करता हूँ। यह मेरा शरीर, जो मुझे इष्ट, कान्त, प्रिय है, जिसकी मैंने बाधा - पीड़ा, रोग, आतंक, परीषह और उपसर्ग आदि से रक्षा की है, ऐसे शरीर का भी अन्तिम श्वासोच्छ्वास तक व्युत्सर्ग (ममत्व - विसर्जन ) करता हूँ,' इस प्रकार संलेखना संथारा करके, भक्त - पान का सर्वथा त्याग करके पादपोपगमन (वृक्ष की कटी हुई शाखा की तरह स्थिर रहकर ) अनशन करके मृत्यु की आकांक्षा न करते हुए रहने लगे। एक मास तक संलेखना संथारा का श्रेष्ठता से पालन करते हुए समाधिमरण को प्राप्त हुए । श्रमणाचार 257
SR No.023140
Book TitleBhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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