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प्रायश्चित24
भगवतीसूत्र में प्रतिसेवना, दोषालोचना, आलोचनार्ह, समाचारी, प्रायश्चित व तप इन छः द्वारों को प्रायश्चित से संबंधित माना है। प्रायश्चित का उल्लेख तप के बारह भेदों में भी हुआ है। प्रायश्चित का अर्थ है पाप का विशोधन करना। राजवार्तिक में प्रायश्चित को स्पष्ट करते हुए कहा गया है- अपराधौ वा प्रायः चितं शुद्धिः - (9.22.1) प्रायस चित्तं- प्रायश्चित अपराध विशुद्धिः। प्रायः का अर्थ है अपराध व चित्त से तात्पर्य है शोधन अर्थात् जिस क्रिया से पाप की शुद्धि हो, वह क्रिया प्रायश्चित है। मानव कभी-कभी प्रमादवश दोषों का सेवन कर लेता है। उन दोषों की शुद्धि के लिए प्रयास करना तथा भविष्य में फिर कभी उस प्रकार का दोष न लगे इसके लिए कृतसंकल्प होना ही प्रायश्चित है। प्रायश्चित के दस प्रकार बताये गये हैं
आलोचनाह- संयम में लगे हुए दोषों को गुरु के समक्ष स्पष्ट वचनों में सरलतापूर्वक प्रकट करना आलोचनाई है।
प्रतिक्रमणार्ह- जिन पाप या दोषों की शुद्धि प्रतिक्रमण से हो जाती है, प्रतिक्रमणार्ह है।
तदुभयार्ह- जिन दोषों की शुद्धि के लिए आलोचना व प्रतिक्रमण दोनों अनिवार्य हैं।
विवेकार्ह- आधाकर्मादि दोषयुक्त आहारादि को सविधि परठना विवेकार्ह
व्युत्सर्गार्ह- नदी आदि को पार करने में तथा मार्ग आदि में चलने से असावधानी के कारण यदि कोई दोष लग गया हो तो कायोत्सर्ग कर उस दोष की विशुद्धि करना व्युत्सर्गार्ह है।
तपार्ह- जिस दोष की शुद्धि तप से हो उसे तपार्ह कहा जाता है।
छेदार्ह- जिस प्रायश्चित में दोष की विशुद्धि के लिए दीक्षा-पर्याय का छेदन किया जाता है, वह छेदाह है।
मूलाह- कभी-कभी प्रबल दोष के सेवन से पूर्वगृहीत दीक्षा नष्ट हो जाती है, ऐसे दोष की विशुद्धि के लिए पुनः महाव्रत लिए जाते हैं, वह मूलाई प्रायश्चित
है।
__ अनवस्थाप्याह- जिस प्रबल दोष की विशुद्धि के लिए अनवस्थापित होना पड़ता है अर्थात् श्रमणवेष को छोड़कर गृहस्थवेष धारण कर तप किया जाता
श्रमणाचार
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