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प्रतिपादन हुआ है। व्रतात्मक आचार में पंचमहाव्रत, समिति, गुप्ति, व्यावहारात्मक आचार में समाचारी आदि सामान्य साध्वाचार का तथा विशेष श्रमणाचार में परीषह, तप, प्रत्याख्यान, संलेखना-संथारा आदि का विस्तृत वर्णन है। आराधना : रत्नत्रय की साधना
ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की निरतिचार रूप से अनुपालना करना आराधना है। भगवतीसूत्र' में आराधना के तीन भेद किये गये हैं; 1. ज्ञान आराधना, 2. दर्शन आराधना, 3. चारित्र आराधना। आराधना के उक्त तीन भेद रत्नत्रय के सूचक हैं। रत्नत्रय की आराधना जैन आचार संहिता का मुख्य सोपान है। आचार्य उमास्वाति ने सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन एवं सम्यक् चारित्र को मोक्ष-मार्ग कहा है।
ज्ञान आराधना- मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यव एवं केवलज्ञान इन पाँच प्रकार के ज्ञान या ज्ञानाधार श्रुत (शास्त्रादि) की काल, विनय, बहुमान आदि आठ ज्ञानाचार-सहित निर्दोष रीति से पालना करना ज्ञानाराधना है। ज्ञान के आधार पर ही व्यक्ति का आचरण फलित होता है। भगवतीसूत्र में प्रत्याख्यान के अन्तर्गत क्रिया के साथ-साथ ज्ञान को भी महत्त्व दिया गया है। ज्ञान के अभाव में क्रिया शुद्ध नहीं होती है। इसी बात को समझाते हुए वहाँ कहा गया है- किसी व्यक्ति द्वारा यह कहने मात्र से कि 'मैंने सर्व प्राण, भूत, जीव आदि की हिंसा का परित्याग किया है। उसका प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान नहीं होता है। जब तक उसे यह ज्ञान नहीं होता कि ये जीव हैं, ये अजीव हैं, ये त्रस हैं, ये स्थावर हैं तब तक उसका प्रत्याख्यान दुष्प्रत्याख्यान है। जिस पुरुष को जीव-अजीव त्रस-स्थावर का ज्ञान होता है अगर वह सर्वप्राण, भूत, जीव आदि की हिंसा का प्रत्याख्यान करे तो उसका प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान होता है। ज्ञान के अभाव में प्रत्याख्यान का यथावत् पालन नहीं होता है अतः वह प्रत्याख्यान दुष्प्रत्याख्यान रहता है, सुप्रत्याख्यान नहीं होता है।'
श्रमण के व्यावहारिक जीवन में सम्यक् ज्ञान की अत्यंत उपयोगिता है। व्यवहार में सम्यक् ज्ञान की उपयोगिता हेतु भगवतीसूत्र में पंचविध व्यवहार का निरूपण हुआ है जिसके आधार पर श्रमण यथोचित सम्यक् प्रवृत्ति व निवृत्ति में संलग्न हो सकते हैं। पंचविध व्यवहार
आध्यात्मिक जगत में व्यवहार से तात्पर्य मुमुक्षुओं की यथोचित सम्यक् प्रवृत्ति-निवृत्ति अथवा उसका कारणभूत, ज्ञान विशेष से है। भगवतीसूत्र में व्यवहार के पाँच प्रकार बताये गये हैं;
श्रमणाचार
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