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इस पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए मधुकर मुनि ने लिखा है कि धर्मास्तिकाय चतुर्दशरज्जुप्रमाण समग्र लोकव्यापी है और अधोलोक का परिमाण सात रज्जु से कुछ अधिक है। इसलिए अधोलोक धर्मास्तिकाय के आधे से कुछ अधिक भाग का स्पर्श करता है। तिर्यग्लोक का परिमाण 1800 योजन है और धर्मास्तिकाय का परिमाण असंख्येय योजन का है। इसलिए तिर्यग्लोक धर्मास्तिकाय के असंख्येय भाग का स्पर्श करता है। ऊर्ध्वलोक देशोन सात रज्जु परिमाण है और धर्मास्तिकाय चौदह रज्जु-परिमाण है। इसलिए ऊर्ध्वलोक धर्मास्तिकाय के देशोन अर्धभाग का स्पर्श करता है। धर्मास्तिकाय अखंड द्रव्य रूप में
धर्मास्तिकाय एक अखंड-द्रव्य है। जीव व पुद्गल की तरह अलग-अलग रूप में नहीं रहता है। अर्थात् जैसे पुद्गल के स्कंध, देश, परमाणु आदि भाग होते हैं उसी तरह धर्मास्तिकाय के अलग-अलग भाग संभव नहीं हैं । सम्पूर्ण अखंडरूप से पूरे धर्मास्तिकाय को ही धर्मास्तिकाय माना जायेगा।
इसे स्पष्ट करते हुए भगवतीसूत्र'4 में कहा गया है कि धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश को या दो, तीन, दस, संख्यात या असंख्येय प्रदेशों को धर्मास्तिकाय नहीं कहा जायेगा। एक प्रदेश कम होने पर भी वह धर्मास्तिकाय नहीं कहा जायेगा। इसे चक्र के उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया है। जैसे चक्र का कोई भाग चक्र नहीं कहलाता है, किन्तु सम्पूर्ण चक्र ही चक्र कहलाता है। उसी प्रकार धर्मास्तिकाय में जो असंख्येय प्रदेश हैं, जब वे सब पूरे परिपूर्ण निरवशेष तथा एकग्रहणगृहीत अर्थात् एक शब्द से कहने योग्य हो जाए तब उस असंख्येय प्रदेशात्मक सम्पूर्ण द्रव्य को धर्मास्तिकाय कहा जा सकता है।
भगवतीवृत्तिा में इसे समझाते हुए कहा गया है निश्चयनय के मन्तव्य से एक प्रदेश कम धर्मास्तिकाय को धर्मास्तिकाय नहीं कह सकते हैं, जब सभी प्रदेश परिपूर्ण हों, तभी वे धर्मास्तिकाय आदि कहे जा सकते हैं । अर्थात् जब वस्तु पूरी हो तभी वह वस्तु कहलाती है, अधूरी वस्तु, वस्तु नहीं कहलाती है। परन्तु व्यवहार नय की दृष्टि से तो थोड़ी-सी अधूरी या विकृत वस्तु को भी पूरी वस्तु कहा जा सकता है, उसी नाम से पुकारा जाता है। अधर्मास्तिकाय
जिस प्रकार जैन-दर्शन में जीव व पुद्गल की गति के माध्यम के लिए उदासीन कारण के रूप में धर्म-द्रव्य को स्वीकार किया गया है। उसी प्रकार
अरूपी-अजीवद्रव्य
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