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________________ सर्वदिशाओं में जाता है, क्षुब्ध होता है। मुक्त जीवों में ऊर्ध्व गति को स्वीकार किया गया है। प्राणमय जीव भगवतीसूत्र में जहाँ एक ओर जीव व चेतना को अभिन्न माना है वहीं प्राण व जीव की भिन्नता को प्रतिपादित करते हुए कहा है- जीवति ताव नियमा जीवे जीवे पुण सिय जीवति सिय नो जीवति - (6.10.6) अर्थात् जो प्राणों को धारण करता है वह तो निश्चित रूप से जीव है, किन्तु जो जीव है वह कदाचित प्राणों को धारण करता है कदाचित् धारण नहीं भी करता है। शुद्धात्मा के प्राण नहीं होते हैं। वह केवल ज्ञानदर्शन स्वरूप होता है। द्रव्यसंग्रह4 में भी व्यवहार दृष्टि से इन्द्रिय, बल, आयु व श्वासोच्छ्वास इन चार प्राण वाले को जीव कहा गया है। उपयोग भगवतीसूत्र में जीव का प्रमुख लक्षण उपयोग माना गया है- गुणतो उवयोगगुणे (2.10.5)। उपयोग के दो भेद किये गये हैं। 1. साकारोपयोग, 2. अनाकारोपयोग। ज्ञान को साकारोपयोग व दर्शन को अनाकारोपयोग कहा जाता है। ज्ञान व दर्शन दोनों को ही ग्रंथ में आत्मा से अभिन्न माना है- आया सिय णाणे, सिय अन्नाणे, णाणे पुण नियमं आया -(12.10.10) अर्थात् आत्मा कदाचित् ज्ञान रूप भी है, कदाचित् अज्ञान रूप भी है, किन्तु ज्ञान तो निश्चित रूप से आत्मस्वरूप ही है। यहाँ आत्मा को ज्ञानरूप के साथ-साथ कदाचित् अज्ञान स्वरूप कहने का अभिप्राय ज्ञान का अभाव नहीं है वरन मिथ्याज्ञान युक्त होना है। ज्ञानरूप होने का अर्थ सम्यग् ज्ञान से युक्त होना है। आचारांग सूत्र में भी आत्मा व ज्ञान की इसी अभिन्नता का वर्णन हुआ हैजे आता से विण्णाता, जे विण्णाता से आता - (1.5.6.171) अर्थात् जो आत्मा है वही ज्ञान है और जो ज्ञान है वही आत्मा है। पंचास्तिकाय26 में आचार्य कुंदकुंद ने ज्ञान व आत्मा की अभिन्नता को स्पष्ट करते हुए कहा है कि ज्ञानी व ज्ञान को सर्वथा भिन्न मानने पर आत्मा और ज्ञान दोनों अचेतन हो जायेंगे। भगवतीसूत्र में ज्ञान व आत्मा की अभिन्नता के साथ-साथ दर्शन को भी आत्मरूप माना है। यथा- आया नियमं दंसणे; दंसणे वि नियमं आया - (12.10.16)। कर्ता व भोक्ता __ भगवतीसूत्र में जीव को कर्ता व भोक्ता दोनों ही रूपों में स्वीकार किया है। जीव के कर्तृत्व को स्पष्ट करते हुए कहा है- जीव के कर्म चेतनाकृत होते हैं भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन 88
SR No.023140
Book TitleBhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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