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________________ आगमकालीन धार्मिक एवं दार्शनिक विचार • 55 वायु की गति को प्राणोपासना द्वारा धारण कर लेते हैं, अर्थात रोक लेते हैं, तब वह अपनी तप की महिमा से दीप्यमान होकर देवता स्वरूप को प्राप्त हो जाते हैं। “सर्वलौकिक व्यवहार को छोड़कर हम मौनवृत्ति से उन्मत्तवत उत्कृष्ट आनन्द सहित वायु भाव को अशरीरी ध्यानवृत्ति को प्राप्त होते हैं और तुम साधारण मनुष्य हमारे बाह्य शरीर मात्र को देख पाते हो, हमारे सच्चे आभ्यन्तर स्वरूप को नहीं' ऐसा वातरशना मुनि प्रकट करते हैं। भागवतपुराण में ही एक अन्य स्थान पर उल्लेख है-अयमवतरो रजसोपप्लुत कैवल्यो प्रशिक्षणार्थ:4 अर्थात् भगवान का यह अवतार रजोगुण से भरे हुए लोगों को कैवल्य की शिक्षा देने के लिए हुआ। किन्तु उक्त वाक्य का यह अर्थ अभी भी संभव है कि यह अवतार रज से उपलुप्त अर्थात् रजोचारण मलचारण वृत्ति द्वारा कैवल्य प्राप्ति की शिक्षा देने के लिए हुआ था। __ जैन मुनियों के आचार में अस्नान, अदन्तधावन, मलपरीषह आदि द्वारा रजोचारण संयम का आवश्यक अंग माना गया है। बुद्ध के समय में भी रजोजल्लिक श्रमण विद्यमान थे। स्वयं बुद्ध ने श्रमणों के विषय में कहा था कि वह संघाटिक के संघाटी धारण मात्र से अचेलक के अचेलकत्वमात्र से, रजोजिल्लक के रजोजल्लिकत्वमात्र से और जटिलक के जटाधारण मात्र से भी श्रामण्य नहीं कहता। ऋग्वेद के दशम मण्डल के एक सौ पैंतीसवें श्लोक के कर्ता के रूप में सात वातरशनामुनि के नाम आए हैं। यथा-जूति, वातजूति, विप्रजूति, विषाणक, करीक्रत, एतश और ऋष्यश्रंगा7 तैत्तिरीय आरण्यक तथा भागवतपराण में वातरशन के साथ साथ श्रमण का भी उल्लेख हुआ है, जो उनकी अभिन्नता का सूचक है। तैत्तिरीय आरण्यक में वातरशना श्रमणों के निकट अन्य ऋषियों के पहुंचने और उन्हें पवित्र उपदेश देने का उल्लेख है। __श्रीमद्भागवत पुराण में वातरशना श्रमणों को आत्मविद्या विशारद, ऋषि, शान्त, संन्यासी और अमल कहकर पुकारा गया है। उक्त वातरशना मुनियों की जो मान्यताएं व साधनाएं वैदिक साहित्य में भी उल्लिखित हैं, उनके आधार पर हम इस परम्परा को वैदिक परम्परा से स्पष्ट रूप से अलग समझ सकते हैं। वैदिक ऋषि वैसे त्यागी व तपस्वी नहीं थे जैसे यह वातरशना मुनि। वैदिक ऋषि स्वयं गृहस्थ थे, यज्ञ सम्बन्धी विधि-विधान में आस्था रखते थे और अपनी इहलौकिक इच्छाओं जैसे पुत्र, धन, धान्य आदि सम्पत्ति की प्राप्ति के लिए इन्द्रादि देवी-देवताओं का आह्वान करते कराते हैं तथा उसके उपलक्ष में यजमानों से धन सम्पत्ति का दान स्वीकार करते हैं। किन्तु इसके विपरीत वातरशनामुनि उक्त क्रियाओं में रत नहीं होते। समस्त गृहद्वार, स्त्री-पुरुष, धन
SR No.023137
Book TitleJain Agam Itihas Evam Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRekha Chaturvedi
PublisherAnamika Publishers and Distributors P L
Publication Year2000
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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