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________________ आगमकालीन धार्मिक एवं दार्शनिक विचार • 53 रहे थे। इन्हें नामान्तर से परिव्राजक, भिक्षु, श्रमण, यति तथा संन्यासी आदि नामों से पुकारा जाता था। यद्यपि संन्यासी शब्द जैन व बौद्ध साहित्य में दुर्लभ है किन्तु ब्राह्मण साहित्य में संन्यासी गृहविहीन वैरागी के लिए प्रयुक्त हुआ है। इन वीतरागात्माओं में श्रमण का स्थान प्रमुख तथा श्रेष्ठतर था। वाल्मीकि रामायण में, ब्राह्मण, निर्ग्रन्थ, तापस और श्रमणों का पृथक पृथक उल्लेख है। अष्टाध्यायी से ज्ञात होता है कि जो स्त्री-पुरुष कुमारावस्था में ही श्रमण दीक्षा ग्रहण कर लेते थे वह कुमार श्रमण कहे जाते थे।80 ___ उत्तराध्ययन सूत्र में 'कालीपव्वंण संकासे किस्से धर्माणि संतए'-यह पद प्रयुक्त हुए हैं। जैनसूत्रों में यह विशेषण ऐसे तपस्वी के लिए प्रयुक्त हुए हैं जो तपस्या के द्वारा अपने शरीर को इतना कृश बना लेता है कि वह काली पर्वत के सदृश हो जाता है और उसकी नाड़ियों का जाल स्फुट दीखने लगता है। बौद्ध साहित्य में भी इन पदों की आवृत्ति हुई है। वहां यह पद ब्राह्मण के लक्षण बताते हुए सामान्य साधु के लिए प्रयुक्त हुए हैं। साधु के लिए प्रयुक्त यह विशेषण यथार्थ हैं क्योंकि ऐसी तपस्या जैन मत में सम्मत रही है अत: यह शंका स्वभाविक है कि तपस्या के बिना शरीर इतना कृश नहीं होता और ऐसी कठोर तपस्या बौद्धों में तो अमान्य ही रही है। ____ डा. विन्टरनित्स की मान्यता है कि इन पदों तथा ऐसी ही कथाओं सम्वादों और गाथाओं की समानता का आधार यह है कि ये सुदीर्घकाल तक प्रचलित श्रमण परम्परा के अंश थे और उन्हीं से जैन, बौद्ध, महाकाव्यकार और पुराणकारों ने उन्हें अंगीकार कर लिया। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि श्रमण संस्कृति की आधारशिला प्रागैतिहासिक काल में ही रखी जा चुकी थी तथा महावीर के काल में अनेक तीर्थों में विभक्त हो चुकी थी।4 आदि तीर्थंकर और वातरशना मुनि जैन कल्पसूत्र में ऋषभदेव आदि तीर्थंकर के जीवन चरित्र का वर्णन मिलता है जिसकी वैदिक साहित्य से पुष्टि होती है। उदाहरण के लिए जैनागमों में तथा वैदिक साहित्य में उनके माता पिता का नाम मरुदेवी तथा नाभि है। उन्हें स्वायंभूमनु की पांचवीं पीढी में इस क्रम से कहा गया है-स्वायंभूमनु, प्रियव्रत, अग्नीध्र, नाभि और ऋषभ। उन्होंने अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को राज्य देकर संन्यास ग्रहण किया। वह नग्न रहने लगे और केवल शरीर मात्र ही उनके पास था। तिरस्कृत होकर भी वह मौन ही रहते थे। कठोर तपश्चरण द्वारा उन्होंने कैवल्य की प्राप्ति की तथा कर्नाटक प्रदेश तक देशाटन किया। वह कुटकांचल पर्वत के वन में उन्मत्त के समान नग्न विचरण करने लगे। इसी वन में बांसों की रगड़ से उत्पन्न
SR No.023137
Book TitleJain Agam Itihas Evam Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRekha Chaturvedi
PublisherAnamika Publishers and Distributors P L
Publication Year2000
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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