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________________ 4 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति में यह भी लिखा है कि वलभी सम्मेलन के प्रमुख देवर्द्धि थे और मथुरा सम्मेलन के प्रमुख स्कन्दिलाचार्य थे। श्वेताम्बर स्थविरावली के अनुसार स्कन्दिलाचार्य देवर्द्धि से बहुत पहले हुए थे। अत: दोनों की समकालीनता संभव नहीं है। भद्रेश्वर की कथावली में भिन्न ही उल्लेख है। उसमें लिखा है कि मथुरा में श्रुतसमृद्ध स्कन्दिल नामक आचार्य थे और वलभी नगरी में नागार्जुन नामक आचार्य थे। दुष्काल पड़ने पर उन्होंने अपने साधुओं को भिन्न-भिन्न दिशाओं में भेज दिया। सुकाल होने पर वे पुन: मिले। जब वह अभ्यस्त शास्त्रों की पुनरावृत्ति करने लगे तो उन्हें ज्ञात हुआ कि वे पढ़े हुए शास्त्रों को प्रायः भूल चुके हैं। श्रुत का विच्छेद न हो, इसलिए आचार्यों ने सिद्धान्त का उद्धार करने का प्रयास आरम्भ किया। जो विस्मृत नहीं हुआ था, उसे वैसे ही स्थापित किया और जो भूला जा चुका था उसे पूर्वापर सम्बन्ध देकर व्यवस्थित किया गया। आर्यस्कन्दिल की अध्यक्षता में मथुरा परिषद् सिद्धान्तों के संशोधन के लिए हुई थी। ___कथावली में कहा गया है कि सिद्धान्तों का उद्धार करने के बाद स्कन्दिल और नागार्जुनसूरि परस्पर मिल नहीं सके। इस कारण से उनके उद्धार किये हुए सिद्धान्त तुल्य होने पर भी उनमें कहीं-कहीं वाचना भेद रह गया है। यही कारण है कि मूल और टीका में हम ‘वायणतरे पुण' या 'नागर्जुनीया स्तुवन्ति' जैसे उल्लेख पाते ___मुनि कल्याणविजय वलभी वाचना को देवर्द्धिगणी की नहीं, किन्तु नागार्जुन की वाचना मानते हैं। उन्होंने लिखा है कि जिस काल में मथुरा में आर्यस्कन्दिल ने आगमोद्धार करके उसकी वाचना शुरू की उसी काल में वलभी नगरी में नागार्जुनसूरि ने भी श्रमणसंघ इकट्ठा किया और दुर्भिक्षवश नष्टावशेष आगम सिद्धान्तों का उद्धार किया। उस सिद्धान्तोद्धार और वाचना में आचार्य नागार्जुन प्रमुख स्थविर थे, इस कारण इसे नागार्जुनी वाचना भी कहते हैं। ऐसी स्थिति में यदि वलभी वाचना नागार्जुन की थी तो देवर्द्धिगणि ने वलभी में क्या किया यह जिज्ञासा स्वाभाविक है। इसके प्रत्युत्तर में मुनि कल्याणविजय का कथन है कि स्कन्दिलाचार्य के समय में वलभी संघ के प्रमुख आचार्य नागार्जुन थे और उनकी दी हुई वाचना वालभी वाचना कहलाती है। देवर्द्धिगणि की प्रमुखता में भी जैनसंघ इकट्ठा हुआ था, यह बात सही है। उस समय वाचना नहीं हुई, पर दोनों वाचनागत सिद्धान्तों का समन्वय करने के उपरान्त वह सिद्धान्त लिखे गये थे। इसलिए हम इस कार्य को देवर्द्धिगणि की वाचना न कह कर पुस्तक लेखन कहते हैं। देवर्द्धि के कार्य की गुरुता से मुनि कल्याणविजयजी ने दोनों वाचनानुयायियों में संघर्ष की भी सम्भावना व्यक्त की है। उनके अनुसार अपनी अपनी परम्परागत वाचना को ठीक मनवाने के लिए अनेक प्रयास हुए होंगे और अनेक संशोधनों के उपरान्त ही दोनों संघों में समझौता हुआ होगा। इस अनुमान
SR No.023137
Book TitleJain Agam Itihas Evam Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRekha Chaturvedi
PublisherAnamika Publishers and Distributors P L
Publication Year2000
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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