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________________ समाज दर्शन एवं समाज व्यवस्था • 247 उत्थान से शूद्रों की अशक्तताएं समाप्त हो गयी थीं। 125 दासों की क्रान्ति का एक मात्र उदाहरण विनयपिटक में मिलता है और यह अतिसामान्य प्रकार की थी। 126 एक बार कपिलवस्तु के शाक्यों के दास नियन्त्रण से बाहर हो गये तथा भिक्षुओं को भोजन अर्पित करने गई उपासिकाओं से छीनाझपटी की तथा सतीत्व भंग किया। यही कारण है कि आपत्तिकाल में भी वहां तीनों द्विज वर्ण शस्त्र धारण कर सकते हैं। शूद्रों को इस विशेषाधिकार से वंचित किया गया है। 127 इससे स्पष्ट है कि नियम बनाने वाले के मन में ऐसी आकस्मिक स्थिति की कल्पना रही होगी जब शूद्र बलपूर्वक वर्ण की सीमाओं को तोड़ने का प्रयास करेंगे। 28 यद्यपि कपिलवस्तु के दासों की सामान्य क्रान्ति के अतिरिक्त इस प्रकार के प्रयास का कोई अन्य दृष्टान्त नहीं है फिर भी वसिष्ठ के नियम से आभास होता है कि उच्च वर्णों के लोगों को आशंका थी कि शूद्रों पर जो अशक्तताएं लादी गयी हैं उनके चलते कहीं वह व्यापक विद्रोह न कर बैठें। 129 सामाजिक दर्शन जैन आचार्यों ने यद्यपि जैन श्रमणों को ऐसी आचार संहिता दी थी तथा ऐसा दिशा निर्देश दिया था कि श्रमण या मुनि की समाज पर न्यूनतम निर्भरता रहे फिर भी अपने श्रावकों तथा अन्य गृहस्थों की आध्यात्मिक उत्कृष्टता के आधार पर अवहेलना नहीं की थी। वह श्रावकों का मूल्य भली भांति जानते थे अत: वह इस विषय में भी सतत सजग थे कि श्रमणों को श्रावकों की श्रद्धा व सद्भावना ही प्राप्त हो । उदाहरण के लिए भिक्षाचर्या के निमित्त मुनि को यह आदेश है कि वह श्रमणों, पार्श्वस्थ या अन्य मत के साधुओं के साथ गृहस्थ के यहां भिक्षा लेने न जाये और न ही किसी गृहस्थ के साथ उसी गृहस्थ के या अन्य के घर में जाये। क्योंकि बहुत बार गृहस्थ इतने साधुओं को एक साथ भिक्षा देने की स्थिति में नहीं हो सकता है अथवा वह देने का अनिच्छुक हो तो भी लज्जा या दबाव के कारण उसे देना पड़ता है। 3° इससे साधु को तो असंयम दोष लगता ही है किन्तु गृहस्थ अथवा श्रावक की सद्भावना भी असद्भावना में बदल जाती है। कई बार उस पर अधिक आर्थिक भार पड़ जाता है और साधु का इस प्रकार आगमन अन्तर्मन में खीझ पैदा कर सकता है। जैन साधु संचित तथा अनेषणीय आहार ग्रहण नहीं करते थे किन्तु अन्य पन्थ के साधु के साथ भिक्षा लेने पर उन्हें पाखण्डी व ढोंगी समझ कर उनकी इस प्रकार निन्दा की जा सकती है, कि यह साधु अन्य साधुओं के साथ मिलकर एकान्त में अनेषणीय व संचित आहार भी मिलबांट कर खा लेते हैं। 31 इससे श्रावकों को साधुओं के आचार पर दुःशंकाएं हो सकती हैं तथा उनके घर में साधुओं के कारण
SR No.023137
Book TitleJain Agam Itihas Evam Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRekha Chaturvedi
PublisherAnamika Publishers and Distributors P L
Publication Year2000
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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