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________________ अध्याय 5 समाज दर्शन एवं समाज-व्यवस्था यद्यपि जैन आचार परम्परा निवृत्तिपरक है और इस रूप में वह गृहस्थ जीवन की अपेक्षा श्रमण जीवन को अधिक महत्वपूर्ण मानती है, फिर भी उसमें सामाजिक जीवन एवं लोकहित की उपेक्षा नहीं की गयी है। जैन दर्शन में ऐसे लोकहित या परार्थ का अनुमोदन किया गया है जो हमारे आध्यात्मिक जीवन के विकास में बाधक न हो। जैन मान्यता यह है कि सच्चा लोक हित या परमार्थ तभी संभव होता है जबकि वह हमारे आध्यात्मिक विकास का सहगामी हो। वह स्वार्थ और परमार्थ का समन्वय उस वीतराग अवस्था में करता है जिसमें मेरे और पराये का भाव ही नहीं होता है। उस अवस्था में जो लोकहित फलित होता है वही सच्चे अर्थों में लोक हित है। जैन परम्परा ऐसे ही लोकमंगल का समर्थन करती है। जैन परम्परा के गृहस्थ एवं श्रमण आचार के नियम यद्यपि बाह्य रूप से व्यक्तिपरक और निषेधात्मक प्रतीत होते हैं तथापि उनकी मूलात्मा समाजपरक और विधायक ही है। जैन परम्परा की आचार नियमों के संदर्भ में जो गहन एवं विश्लेषणात्मक दृष्टि रही है वह बुराई के मूल कारणों की तह तक पहुंचकर उसका निराकरण करती है। जैन विचरणा सामाजिक एवं वैयक्तिक नैतिक स्वास्थ्य के अनुरक्षण के लिए नियमों का ऐसा सुरक्षित दुर्ग निर्माण करती है जिसमें नैतिक जीवन के घातक शत्रुओं के अल्पतम प्रवेश की अल्पतम ही संभावना रह जाती है। यद्यपि कुछ नियम वर्तमान परिस्थितियों में अधिक महत्वपूर्ण नहीं हैं और उनके प्रचलित वर्तमान रूपों ने उन्हें अधिक हास्यास्पद बना दिया है फिर भी सामान्यतया जैन आचार की नियम व्यवस्था आज भी सामाजिक एवं वैयक्तिक जीवन को शान्त और मधुर बनाने में बहुत कुछ सक्षम है। शर्त यही है कि उन नियमों की मूलात्मा को समझ कर उनका निष्ठापूर्वक पालन किया जाये। भारतीय सामाजिक संस्थाएं भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों को प्रतिरूपित करती हैं। ये संस्थाएं भारतीय जीवन की विधि को बताती हैं, भारतीय विचार आदर्श एवं
SR No.023137
Book TitleJain Agam Itihas Evam Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRekha Chaturvedi
PublisherAnamika Publishers and Distributors P L
Publication Year2000
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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