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________________ जैन नीतिशास्त्र का स्वरूप • 223 समस्याओं का बौद्धिक विश्लेषण है वरन् सम्यक् जीवन जीने की कला का निर्देशन भी है। नीतिशास्त्र की अध्ययन विधि के सम्बन्ध में भी दृष्टिकोण समन्वयात्मक है। वह व्यवहार एवं निश्चय नय के रूप में अनुभवात्मक और अनुभवातीत दोनों ही विधियों को स्वीकार करता है। उसके अनुसार नैतिक साध्य और आचरण के आन्तरिक पक्ष का अध्ययन निश्चय नय के आधार पर और आचरण के बाह्य रूप का अध्ययन व्यवहार नय के आधार पर किया जाता है। जैन दर्शन में आचरण का आन्तरिक पक्ष निरपेक्ष और बाह्य पक्ष देशकाल सापेक्ष माना गया है। कर्म की नैतिकता सापेक्ष है लेकिन चित्त वृत्ति की नैतिकता निरपेक्ष है। नैतिक निर्णय के विषय के सम्बन्ध में जैन दर्शन कर्म प्रेरक एवं वांछित कर्म परिणाम दोनों को ही नैतिक निर्णय का विषय मानता है। जहां तक निष्पन्न कर्म परिणाम का प्रश्न है वह नैतिक दृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण नहीं माना गया है फिर भी व्यावहारिक एवं सामाजिक दृष्टि से उसे उपेक्षित नहीं किया गया है।265 नैतिक प्रतिमान के सम्बन्ध में भी जैन परम्परा समन्वयवादी है। उसमें पाश्चात्य परम्परा में विवेचित विभिन्न नैतिक प्रतिमानों को स्वीकार कर लिया गया है। यद्यपि उसका झुकाव वीतरागता निष्काम भाव एवं आत्म पूर्णता के मानक के प्रति अधिक है। नैतिक जीवन का परमश्रेय राग-द्वेष से रहित चेतन की शुद्ध दशा की उपलब्धि को माना गया है जो स्वभावत: आत्मपर्णता की दिशा में ले जाती है। जैन चिन्तन एक ऐसा तत्वदर्शन देता है जिसमें आचार दर्शन की स्पष्ट सम्भावना हो। उसकी तत्वमीमांसा की प्रकृति मूलत: नैतिक है। वह परमतत्व की एकान्त कूटस्थ एवं अद्वैतवादी धारणा को इसलिए अस्वीकार करता है क्योंकि उसमें कर्मफल व्यतिक्रम को नहीं समझा जा सकता और मूल प्रणाश एवं अकृतभोग के दोष उपस्थित हो जाते हैं। नैतिकता की प्रमुख मान्यताओं के रूप में आत्मा की अमरता को स्वीकार किया गया है। नियतिवाद और संकल्प स्वातन्त्र्य की धारणाओं में जैन दर्शन एक सुन्दर समन्वय प्रस्तुत करता है। उसके अनुसार आत्मा तात्विक क्षमता की अपेक्षा से ही स्वतन्त्र है। वस्तुत: व्यक्ति स्वतन्त्र नहीं है, व्यक्ति के सम्बन्ध में स्वतन्त्रता तथ्य नहीं संभावना है। नैतिक जीवन के माध्यम से जीव वासनाओं के आवरण से मुक्त हो कर स्वतन्त्रता का लाभ उठा सकता है जो उसकी आत्मा का सत्य स्वरूप है। जैन दर्शन के अनुसार जीव स्वयं ही अपने बन्धन का सर्जक है और उससे मुक्त होने की क्षमता भी उसी में है। ___ जैन परम्परा में निर्वाण नैतिक जीवन का साध्य माना गया है। जैन परम्परा में निर्वाण आत्मा की ज्ञानात्मक, मूल्यात्मक और संकल्पनात्मक पक्षों की पूर्णता तथा तनाव और क्षोभ से रहित शाश्वत आनन्द की समत्वपूर्ण अवस्था है। बौद्ध और
SR No.023137
Book TitleJain Agam Itihas Evam Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRekha Chaturvedi
PublisherAnamika Publishers and Distributors P L
Publication Year2000
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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