SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 223
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन नीतिशास्त्र का स्वरूप • 189 जाता है। गांव के बाहर एकान्त स्थान में दण्डासन, लगुड़ासन अथवा उत्कटुकासन से ध्यान किया जाता है। दसवीं प्रतिमा सप्तरात्रि की होती है। इसमें चौविहार तेले पारणा किया जाता है। गांव के बाहर गोदोहन आसन, वीरासन अथवा आम्रकुन्जासन से ध्यान किया जाता है। ग्यारहवीं प्रतिमा अहोरात्र की होती है। एक दिन और एक रात अर्थात् आठ प्रहर तक इनकी साधना की जाती है। चौविहार तेले के द्वारा इनकी आराधना होती है। नगर के बाहर दोनों हाथों को घुटनों की ओर लम्बा करके दण्डायमान रूप में खड़े होकर कायोत्सर्ग किया जाता है। बारहवीं प्रतिमा एक रात्रि की है। अर्थात् इसका समय केवल एक रात्रि है। इसकी आराधना बेले को बढ़ाकर चौविहार तेला करके किया जाता है। गांव के बाहर खड़े रहकर, मस्त को थोड़ा सा झुका कर, किसी एक मुद्गल पर दृष्टि रखकर, निर्मिमेष नेत्रों से निश्चलतापूर्वक कायोत्सर्ग किया जाता है। उपसर्गों के आने पर उन्हें समभाव से सहन किया जाता है। परिषह-प्रविभक्ति जो सहा जाता है उसे परीषह कहते हैं। सहने के दो प्रयोजन हैं-(1) मार्गच्यवन और (2) निर्जरा। स्वीकृत मार्ग से च्युत न होने के लिए निर्जरा तथा कर्मों को क्षीण करने के लिए परीषह किया जाता है।64 भगवान महावीर की धर्म प्ररूपणा के दो मुख्य अंग हैं-अहिंसा और कष्ट सहिष्णुता। कष्ट सहने का अर्थ शरीर, इन्द्रिय और मन को पीड़ित करना नहीं है, किन्तु अहिंसा आदि धर्मों की आराधना को सुस्थिर बनाये रखना है। यद्यपि एक सीमित अर्थ में काय: क्लेश भी तपरूप में स्वीकृत है किन्तु परीषह और काय क्लेश एक नहीं है। काय: क्लेश आसन करने, ग्रीष्मऋतु में आतापना लेने, वर्षा ऋतु में तरुमूल में निवास करने, शीतऋतु में अपाकृत स्थान में सोने और नाना प्रकार की प्रतिमाओं को स्वीकार करने, न खुजलाने, शरीर की विभूषा न करने के अर्थ में स्वीकृत है। __बौद्ध भिक्षु काय: क्लेश को महत्व नहीं देते किन्तु परीषह सहन की स्थिति को वह भी अस्वीकार नहीं करते। स्वयं महात्मा बुद्ध ने कहा है-मुनि शीत, उष्म, क्षुधा, पिपासा, घात, आतप, दंश और सरीसृप का सामना कर खंग-विषाण की तरह अकेला विचरण करे।67 आचारांग नियुक्ति में परीषह के दो विभाग हैं
SR No.023137
Book TitleJain Agam Itihas Evam Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRekha Chaturvedi
PublisherAnamika Publishers and Distributors P L
Publication Year2000
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy