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________________ जैन नीतिशास्त्र का स्वरूप. 183 श्रमण का आचार साधु के सत्ताईस गुण सर्वविरत श्रमण के लिए सत्ताईस मूल गुणों की पालना आवश्यक है। यह हैं(1) प्राणातिपात से विरमण, (2) मृषावाद से विरमण, (3) अदत्तादान से विरमण, (4) मैथुन से विरमण, (5) परिग्रह से विरमण, (6) चक्षु इन्द्रिय निग्रह, (7) श्रोत्रेन्द्रिय निग्रह, (8) प्राणेन्द्रिय निग्रह, (9) रसनेन्द्रिय निग्रह, (10) स्पर्शेन्द्रिय निग्रह, (11) क्रोध विवेक, (12) मानविवेक, (13) माया विवेक, (14) लोभ विवेक, (15) भावसत्य, (16) करण सत्य, (17) योग सत्य, (18) क्षमा, (19) विरागता, (20) मन-समधारणता, (21) वचन समधारणता, (22) कायसमधारणता, (23) ज्ञान सम्पन्नता, (24) दर्शन सम्पन्नता, (25) चरित्र सम्पन्नता, (26) वेदना अधिसहन, (27) मारणान्तिक अधिसहन। पांच महावता (1) अहिंसा महाव्रत-सदा विश्व के शत्रु और मित्र सभी जीवों के प्रति समभाव रखना और यावज्जीवन प्राणातिपात से विरति। (2) मृषावाद से विरमण-अप्रमत्त रहकर मृषा का वर्जन करना तथा सतत सावधान रहकर हितकारी वचन बोलना। (3) अदत्तादान विरमण-दतौन आदि भी बिना दिये न लेना तथा दत्त वस्तु भी वही लेना जो अनवय और एषणीय हो। (4) मैथुन विरमण-अब्रह्मचर्य की विरति करना और उग्र ब्रह्मचर्य को धारण करना। (5) परिग्रह विरमण-धनधान्य और प्रेष्यवर्ग के परिग्रहण का वर्जन, सब आरम्भी द्रव्य की उत्पत्ति के व्यापारों में ममत्व का त्याग। आठ प्रवचन माताएं पांच समिति तथा तीन गुप्ति रत्नत्रयी सम्यक्दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चरित्र को प्रवचन कहा जाता है।2 मुनि के समस्त चरित्र के उत्पादन रक्षण और विशोधन के लिए यह आठों अनन्य साधन हैं। इनमें समस्त प्रवचन गणिपिटक द्वादशांग समाया हुआ है।24 इन आठों से प्रवचन का प्रसव होता है।
SR No.023137
Book TitleJain Agam Itihas Evam Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRekha Chaturvedi
PublisherAnamika Publishers and Distributors P L
Publication Year2000
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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