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________________ 180 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति (1) लाभ में आकर मनुष्य और पशुओं से अधिक काम लेना। (2) धान्यादिक का संग्रह करना तथा आपत्काल में अत्यधिक मुनाफा कमाना। (3) दूसरों के व्यापार में बाधक होना। (4) पर्याप्त लाभ होने पर भी अधिक लाभ की इच्छा करना। (5) धनादिक की मर्यादा का नित्य बढ़ाते जाना। अपरिग्रह की पांच भावनाएं बताई गई हैं। यह हे श्रोत्र, चक्षु, प्राण, रसना और त्वचा के विषय शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श के गोचर होने पर रामभाव तथा अमनोज्ञ पर द्वेषभाव न लाकर उदासीन भाव रखना। इसी प्रकार अपरिग्रह व्रत की दृढता और सुरक्षा के लिए पांच भावनाएं बताई गई हैं। यथा (1) सोच विचार कर वस्तु की याचना करना। (2) आचार्य आदि की अनुमति से भोजन करना। (3) परिमित पदार्थ स्वीकार करना। (4) पुनः पुन: पदार्थों की मर्यादा करना, तथा (5) साधर्मिक साथी श्रमण से परिमित वस्तुओं की याचना करना। सर्वमैथुन विरमण अथवा ब्रह्मचर्य ब्रह्मचर्य मुख्यत: कामवासना को संयत रखने पर बल देता है, क्योंकि भोग के द्वारा इसकी शान्ति नहीं वृद्धि होती है। ब्रह्मचर्य का पालन न करना भी हिंसा का हेतु बनता है, क्योंकि इससे समाज में दुख प्रसार के साधन के हेतु बनते हैं। ब्रह्मचर्य का पालन भी मन, वचन और कर्म से अपेक्षित है। ब्रह्मचर्य के अन्तर्गत वस्तुत: शास्त्र अध्ययन, वीर्यरक्षण एवं ईश चिन्तन आते हैं। शास्त्रों के सम्यक् परिशीलन एवं ईश चिन्तन से कामभावना स्वत: बाधित होती है। ब्रह्मचर्य अपरिग्रह का ही अंश है। ब्रह्मचर्य पालन करने के लिए अनेक विधि निषेधों का विधान किया गया है। शारीरिक और आत्मिक बल को केन्द्रित करने का ब्रह्मचर्य अपूर्व साधन है। इसका निर्वाह करने के लिए सब प्रकार के ममत्व का उन्मूलन अनिवार्य है। कुन्दकुन्दाचार्य का कथन है कि जिनकी इन्द्रिय विषयों में आसक्ति है उनको स्वभाविक दुख समझना चाहिए, क्योंकि यदि उन्हें दुख स्वभावी नहीं है तो वे विषयों की प्राप्ति के लिए यत्न ही क्यों करते? ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए उत्तराध्ययन में दस स्थानों का वर्णन प्राप्त होता है
SR No.023137
Book TitleJain Agam Itihas Evam Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRekha Chaturvedi
PublisherAnamika Publishers and Distributors P L
Publication Year2000
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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