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168 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति
तीन के साथ। द्र० हिस्ट्री आफ जैन मोनैकिज्म, पृ० 4691 266. वही, पृ० 467: तुलनीय, चुल्लवग्ग, 114 बौद्ध संघ में सौ वर्ष के पर्याय वाली भिक्षुणी
को भी श्रमणों तक को झुककर अभिवादन करने का विधान है। 267. व्यवहार भाष्य, 5/4-5: द्र० हिस्ट्री आफ जैन मोनैकिज्म, पृ० 471। 268. व्यवहार भाष्य, 5/11-121 269. हिस्ट्री आफ जैन मोनैकिज्म, पृ० 473। 270. वृहत्कल्प, 1/51 - यह आर्य देश माना जाता था। उससे बाहर अनार्य देश था।
पं० दलसुख मालवणिया, निशीथ एक अध्ययन, पृ० 82। 271. उत्तरज्झयणाणि सानुवाद, अध्याय 1, पृ० 11। 272. भिक्षुणी पवित्र जीवन व्यतीत कर सके इसके लिए बौद्ध संघ भी सजग था। भिक्षुणी के
लिए वन में आवास निषिद्ध था। द्र० चुल्लवग्ग भिक्षु जगदीश काश्यप, पृ० 399। 273. हिस्ट्री आफ जैन मोनैकिज्म, पृ० 504। बौद्ध भिक्षुणी के लिए भी लगभग यही नियम थे।
तु० दी एज आफ विनय, पृ० 132: बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास, पृ० 161। 274. हिस्टी आफ जैन मोनैकिज्म. १० 4771 275. वही, पृ० 4771 276. द्र० इण्डियन एण्टीक्वेरी, जि० 39, पृ० 266 पद टिप्पण 421 277. राजीमती ने दीक्षा लेकर स्वयं के भौरे जैसे काले केशों का हाथों से तुंचन किया।
उत्तराध्ययन सूत्र साध्वी श्री चन्दना 22/30, पृ० 2291 278. हिस्ट्री आफ जैन मोनैकिज्म, पृ० 4871 279. व्यवहारभाष्य, 7/8-9।। 280. द्र० हिस्ट्री आफ जैन मोनैकिज्म, पृ० 488-89। 281. वृहत्कथाकोष, भूमिका, पृ० 21। 282. गच्छाचार, 123: हिस्ट्री आफ जैन मोनैकिज्म, पृ० 489। 283. वृहत्कल्प,4/9-101 284. वृहत्कल्पभाष्य, जि०5,52531 285. वही, जि० 1/122-25 पीठिका। 286. वही, जि० 6, 62671 287. हिस्ट्री आफ जैन मोनैकिज्म, पृ० 463। 288. वृहत्कल्पभाष्य जि० 4,41331 289. हिस्ट्री आफ जैन मोनैकिज्म, पृ० 463। उल्लेखनीय है कि उत्तराध्ययन में भी ऐसा ही
प्रसंग है कि देव के मन्दिरों में दो घरों के बीच की संघियों में और राजमार्ग में अकेला मुनि अकेली स्त्री के साथ न खड़ा रहे न संलाप करे - उत्तरज्झयणाणि सानुवाद अध्ययन 1/
26, पृ० 111 290. मूलाचार, यथा गौरूपविषति, 4/195 तुलनीय स्त्रियों के लिए प्रज्ञप्त 6, शिक्षापद ____ पाचित्तीय संख्या 63-68: द्र० बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास, पृ० 150। 291. मूलाचार, 4/1951 299 हिस्टी आफ जैन मोनैकिज्म. प० 4941 293. वही। 294. कल्पसूत्र एस०बी०ई० जि० 22, पृ० 303। 295. आचार्य कुन्दकुन्द, प्रवचनसार, सम्पादित ए०एन० उपाध्ये 111, 71