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________________ 166 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति 219. दशवैकालिक, 3/2, पृ० 61 220. उत्तराध्ययन, एस० बी०ई० जि० 45, पृ० 1331 221. दशवैकालिक लाडनूं संस्करण, पृ० 22। दशवैकालिक के अनुसार यह भोजन मिश्रजात है अर्थात् गृहस्थ तथा साधु दोनों के लिए सम्मिलित रूप से बनाया हुआ । 222. वही, पृ० 23 - नसैनी पर चढने से गृहस्थ के गिरने की सम्भावना रहती है। उसके हाथ, पैर टूट सकते हैं। उसके गिरने से नीचे दब कर जीवों की विराधना हो सकती है। 223. वही, पृ० 22 - दशवैकालिक के अनुसार प्राभित्य का अर्थ है निर्ग्रन्थ को देने के लिए कोई वस्तु दूसरों से उधार लेना । 224. मालाहत के तीन प्रकार हैं- 1. ऊर्ध्वमालापहृत: ऊपर से उतारा हुआ, 2. अधोमालापहृतः भूमिगृह तलघर से लाया हुआ, एवं 3. तिर्यग मालापहृतः गहरे बर्तन या कोठे आदि में से झुककर निकाला हुआ। दशवैकालिक लाडनूं संस्करण, पृ० 231 225. उत्तराध्ययन एस० बी०ई० जि० 45, पृ० 132-331 226. जाति, कुल, गण, शिल्प और कर्म का अवलम्बन लेकर भिक्षा प्राप्त करना । दशवैकालिक, पृ० 6। 227. उत्तराध्ययन एस० बी०ई० जि० 45, पृ० 1331 228. दशवैकालिक लाडनूं संस्करण, पृ० 20-21 229. आयारो, पृ० 17-18: 5/79-801 230. वही, पृ० 218 सूत्र 831 231. उल्लेखनीय है कि जैन मुनियों के विनय और बौद्ध भिक्षुओं के विनय में एक अन्तर है। जैन मुनियों के लिए तैयार किये गये आहार मात्र का ग्रहण निषिद्ध है। जैन मुनि का कथन है - परप्पवित्तस्य अर्थात् दूसरों के लिए निष्पन्न आहार में से भिक्षाटन के लिए आया हूं। जबकि बौद्धभिक्षु अपने लिए निष्पन्न आहार में से भी भिक्षा ग्रहण कर सकता है। यदि आहार मांस, मछली युक्त हो तो वह उसके लिए निष्पन्न नहीं होना चाहिए। ऐसा न होने से वह आहार परिशुद्ध नहीं रहता । बौद्धभिक्षु के लिए परिशुद्ध आहार की ही अनुज्ञा है ।— द्र० तुलसी प्रज्ञा, अप्रेल जून, 1975, पृ० 120 232. वृहत्कल्पभाष्य, खण्ड 1, पृ० 532-401 233. दशवैकालिक सं० मुनि नथमल, लाडनूं, 1 / 2-3, पृ० 31 234. बौधायन-2, 10,18, 13 तुलनीय, आचारांग सूत्र - 2, 1: द्र० जैकोबी, जैन सूत्रज भाग-1, पृ० 291 235. किन्तु आधुनिक शोध से अनुकरण का यह सिद्धान्त निरस्त हो गया है तथा इस विषय की स्थापना हो चुकी है कि स्वयं ब्राह्मण धर्म में संन्यास आश्रम श्रमण परम्परा के अनुकरण पर मान्य हुआ। जिस श्रमण परम्परा से कालान्तर में बौद्ध और जैन मतों ने आकार प्राप्त किया था: जैकोबी के इस विश्वास में कि निवृत्ति का आदर्श ब्राह्मणों के धर्म में पहले उदित हुआ और चतुर्थ आश्रम के रूप में व्यक्त हुआ, पीछे बौद्धों और जैनों ने अनुसरण किया। इस अभ्युपगम के समर्थन में पर्याप्त युक्ति बल नहीं दीखता क्योंकि चातुराश्रम्य के सिद्धान्त की ब्राह्मण धर्म में प्रतिष्ठा सर्वप्रथम धर्मसूत्रों में हुई। उसके पहले नहीं और अधिक सम्भावना इस बात की है कि परिव्रज्या का भी ग्रहण ब्राह्मणों ने श्रमणों से किया, न कि श्रमणों ने ब्राह्मणों से बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास, पृ० 25 तथा आगे । 236. आचारांग, एस० बी०ई० जि० 22, पृ० 1361 237. हिस्ट्री आफ जैन मोनैकिज्म, पृ० 1571
SR No.023137
Book TitleJain Agam Itihas Evam Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRekha Chaturvedi
PublisherAnamika Publishers and Distributors P L
Publication Year2000
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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