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________________ 158 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति 50. ठाणं, (लाडनूं), 4/22, 23 पृ० 409, 5161 51. मुनि नथमल, जैन दर्शन मनन और मीमांसा, पृ० 361 52. दयानन्द भार्गव, जैन इथिक्स, पृ० 175 53. ठाणं लाडनूं संस्करण, 4/542-43, पृ० 451। 54. दशवैकालिक 9/16 दशवैकालिक और उत्तराध्ययनः सम्पा० अनु० मुनि नथमल पृ० 53 : हिस्ट्री आफ जैन मोनैकिज्म, पृ० 1451 55. आवश्यक व्यवहार तथा आवश्यक निर्युक्ति, गाथा 12091 56. सुतं वाइए उवज्झाओ ख सूत्र प्रदा उपाध्यायाः । 57. आचारांग (एस० बी०ई०), जि० 22, पृ० 113 तथा 1461 58. वृहद्गौतम स्मृति, 14/59-60 1/781 59. अनुयोग कृदाचार्य : उपाध्यायास्तु पा क: अभिधान चिन्तामणि नाममाला, 60. भगवती चूर्णि, पृ० 232 अ, द्र० हिस्ट्री आफ जैन मोनैकिज्म, पृ० 144 । उल्लेखनीय है कि प्रारम्भिक जैनागमों जैसे कि आचारांग तथा सूत्रकृतांग में उपाध्याय की अर्हताओं तथा कर्तव्यों के विषय में सूचनाएं प्राप्त नहीं होतीं। 61. हिस्ट्री आफ जैन मोनैकिज्म, पृ० 145। 62. डा० नथमल टाटिया, निदेशक जैन विश्व भारती, लाडनूं ने व्यक्तिगत साक्षात्कार में लेखिका को बताया कि यह आचार्योपाध्याय पद एक नहीं अपितु दो व्यक्तियों आचार्य तथा उपाध्याय के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है जो पद में समान किन्तु कार्यों में भिन्न है। 63. डाक्ट्रिन आफ दी जैनज, पृ० 2551 64. ठाणं सं० (मुनि नथमल ), लाडनूं 5 / 166 पृ० 592 तथा 737-38 65. ठाणं सं० (मुनि नथमल), लाडनूं 5/67, पृ० 593, 7/7-8 में आचार्योपाध्याय के संग्रह व असंग्रह स्थान पद की चर्चा है । पृ० 718-19 66. व्यवहारभाष्यः द्र० साध्वी कनकश्री, "महावीर की संघ व्यवस्था का प्रारूप और विकास': तुलसी प्रज्ञा, जनवरी मार्च 1976, पृ० 58-59: वृहत्कल्प, 4 / 15: द्र० नन्दकिशोर प्रसाद, स्टडीज इन बुद्धिस्ट एण्ड जैन मोनैकिज्म, पृ० 2111 67. हिस्ट्री आफ जैन मोनैकिज्म, पृ० 145। 68. कल्पसूत्र वृत्ति, पृ० 108, द्र० तुलसी प्रज्ञा, जनवरी-मार्च, 76, पृ0 591 69. ठाणं (लाडनूं), 3 / 187, पृ० 1881 70. वही, पृ० 10121 71. कुल, गण और संघ की व्याख्या लौकिक और लोकोत्तर दो दृष्टियों से की जा सकती है। कुल, गण और संघ शासन की इकाइयां रही हैं। जो व्यक्ति इनमें विघटन का विग्रह करता है वह स्थविर है। यह लौकिक व्यवस्था है। लोकोत्तर व्यवस्था के अनुसार एक आचार्य के शिष्यों को कुल, तीन आचार्यों के शिष्यों को गण तथा अनेक आचार्यों के शिष्यों को संघ कहा जाता है— स्थानांगवृत्ति, पत्र 489 । 72. ठाणं, 10/136 टिप्पण 57 पृ० 10121 73. व्यवहार 10/15 : व्यवहार भाष्यगाथा 46-49: व्यवहार भाष्य वृत्तिपत्र 101 के अनुसारजाति स्थविर को काल और प्रकृति के अनुकूल आहार, आवश्यकतानुसार उपधि और वसति देनी चाहिए। उनका संस्तारक मृदु हो तथा स्थान परिवर्तन के समय शिष्य उठाये तथा यथास्थान पानी पिलाये । श्रुत स्थविर को कृतिकर्म और वनन्दक देना चाहिए तथा उनके अभिप्राय के अनुसार चलना चाहिए। उनके आगमन पर उठना, बैठने के लिए
SR No.023137
Book TitleJain Agam Itihas Evam Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRekha Chaturvedi
PublisherAnamika Publishers and Distributors P L
Publication Year2000
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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