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________________ जैन संघ का स्वरूप • 155 पांचवां वंशज इस क्रम में कहा है : मनु, प्रियव्रत, अग्नीध, नाभि और ऋषभ। वह नग्न रहते थे और केवल शरीर मात्र ही उनके पास था। लोगों द्वारा तिरस्कार किये जाने, गाली गलौच करने और मारे जाने पर भी वह मौन रहते थे। अपने कठोर तपश्चरण द्वारा उसने कैवल्य प्राप्ति की तथा दक्षिण कर्नाटक प्रदेश में भ्रमण किया। वह कुटकांचल पर्वत के वन में उन्मत्त के समान नग्न रूप में विचरने लगे। बांसों की रगड़ से वन में आग लग गई और उसमें उन्होंने स्वयं को भस्म कर डाला। द्र० जैन धर्म का उद्गम और विकास, पृ० 11-12 तुलनीय : कल्पसूत्र एस०बी०ई० जि० 22ए पृ० 281-285। 8. भागवत पुराण, 5/3/20 - भागवत पुराण के कथन में उल्लेखनीय दो बातें हैं कि भारतीय संस्कृति में ऋषभ का स्थान तथा प्राचीनता का साहित्यिक परम्परा से घनिष्ठ व महत्वपूर्ण सम्बन्ध है। हिन्दू और जैन दोनों ही उन्हें पूज्य मानते हैं। हिन्दू विष्णु के अवतार और जैन आदि तीर्थंकर के रूप में पूजते हैं। दूसरा, अवतारों में यह राम और कृष्ण से भी पुरातन माने गये हैं। - द्र० जैन धर्म का उद्गम और विकास, पृ० 12। 9. भागवत पुराण, 5/6/121 10. उत्तराध्ययन (एस०बी०ई०), जि० 45, पृ० 119, 129। 11. जैकोबी, जैन सूत्रज, भाग-2 (एस० बी०ई०जि०), 45, भूमिका । 12. आचारांग (एस०बी०ई०), जि० 22, पृ० 194। 13. जैकोबी, कल्पसूत्र, भूमिका (एस० बी०ई०), पृ० 8 तथा इण्डियन एण्टीक्वेरी - 12, पृ० 211 14. ठाणं, 4/136-137, पृ० 3171 15. दीर्घ निकाय, सांमज्जफलसुत्त (पाली टैक्स्ट सोसायटी), पृ० 57 16. जैकोबी के मत में महावीर और पार्श्व के बीच दो सौ पचास वर्ष के अन्तराय श्रमण संघ के आचार में अवश्य ही शिथिलता आ गई होगी। इसलिए महावीर ने ब्रह्मचर्य का निर्धारण कर दिया होगा । द्र० जैन सूत्रज, भाग-2, पृ० 123 पाद टिप्पणी 31 17. उत्तराध्ययन, एस० बी०ई० जि० 45, पृ० 119 से 129 1 किन्तु के०सी० ललवाणी का मत है कि महावीर ने ब्रह्मचर्य नहीं, अपितु पूर्ण अपरिग्रह निर्धारित किया था। सांसारिक उपकरणों से पूर्ण विरक्ति तभी संभव है जब वस्त्र त्यागे जाएं। द्र० भगवती सूत्र, जि० 2, पृ० 352 1 18. प्रथम तीर्थंकर के श्रमण ऋजु-जड़, अन्तिम के वक्र जड़ और मध्यवर्ती तीर्थंकर के श्रमण ऋजु प्रज्ञ होते हैं। प्रथम तीर्थंकर के श्रमणों के लिए मुनि आचार को यथावत ग्रहण करना कठिन है। चरम तीर्थंकर के श्रमणों के लिए आचार का पालन कठिन है। मध्यवर्ती तीर्थंकरों मुनि उसे यथावत ग्रहण करते हैं तथा सरलता से पालन भी करते हैं। इन्हीं कारणों से धर्म के यह भेद उत्पन्न हुए। उत्तराध्ययन, 23/25, 26, 27 द्र० उत्तरज्झयणाणि (सानुवाद), पृ० 3011 19. पाश्र्वापत्यीय सवस्त्र इसलिए थे कि बाह्य उपकरण से भी लोगों को ज्ञात हो कि वह साधु हैं। इसलिए नाना प्रकार के उपकरणों की परिकल्पना की गई। संयम जीवन यात्रा को निभाना और मैं साधु हूं ऐसा ध्यान आते रहना वेश धारण के प्रयोजन थे किन्तु महावीर के साधु निर्वस्त्र इसलिए थे कि मोक्ष का निश्चित साधन ज्ञान, दर्शन और चारित्र ही रहे । विभूषा आध्यात्म पथ की बाधा न बन जाये । उत्तराध्ययन (साध्वी चन्दना), 23/29-33: उत्तरज्झणाणि (सानु), पृ० 301, आमुख | 20. दशवैकालिक और उत्तराध्ययन वाचना प्रमुख आचार्य तुलसी सम्पादक मुनि नथमल
SR No.023137
Book TitleJain Agam Itihas Evam Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRekha Chaturvedi
PublisherAnamika Publishers and Distributors P L
Publication Year2000
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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