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128 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति
(1) पहला श्रमण अथवा श्रमणी ऐसे वस्त्रों की एषणा कर सकते हैं। जैसे ऊन, रेशम, सन, खजूर की पत्ती तथा अर्कतूल आदि 1209
(2) दूसरा वह ऐसे वस्त्रों की एषणा कर सकते हैं जिनका कि उन्होंने स्वयं भली भांति निरीक्षण कर लिया हो । 210
(3) वह उत्तरवासक या उत्तरीय की एषणा कर सकते हैं।
(4) वह ऐसे वस्त्र की भी एषणा कर सकते हैं जिनकी कि किसी अन्य श्रमण ब्राह्मण, अभ्यागत, खैराती या भिखारी को जरुरत हो ।
वह ऐसे वस्त्र स्वीकार करे जो शरीर के अनुरूप न हों, मजबूत न हों, टिकाऊ न हों तथा विशेषरूप से उनके पहनने के लिए बने हों । 2 1 1
जो श्रमण तीन वस्त्र और एक पात्र रखने की मर्यादा में स्थित है उसका मन ऐसा नहीं होता कि वह चौथे वस्त्र की याचना करेगा। वह यथा एषणीय अपनी कल्पमर्यादा के अनुसार गृहणीय वस्त्रों की याचना करे। वह यथाग्रहीत वस्त्रों को धारण करे, न छोटा बड़ा करे, न संवारे । ग्रामान्तर जाता हुआ वस्त्रों को छुपाकर न चले। वह अल्प, अतिसाधारण वस्त्र धारण करे तथा अवमचेलिक हो जाये | 212
श्रमण जब यह जाने कि हेमन्त बीत गया है, ग्रीष्म ऋतु आ गयी है तब वह यथापरिजीर्ण वस्त्रों का परित्याग करे | 213 उनका विसर्जन कर वह एक अन्तरवासक, सूतीवस्त्र और एक उत्तरवासक ऊनीवस्त्र रखे। एक शाटक रहे या अचेल वस्त्र रहित हो जाये। लाघव का चिन्तन करते हुए वह वस्त्रों का क्रमिक विसर्जन करे | 214
भोजन
जीवन की मूल आवश्यकताओं में से भोजन एक है। यद्यपि दिगम्बर परम्परा के अनुसार केवली को भोजन की कोई आवश्यकता नहीं होती किन्तु श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार श्रमण इसका अपवाद नहीं है । यद्यपि प्रत्येक परिस्थिति में उसे अपनी आवश्यकताओं को न्यूनतम करने की आवश्यकता है।
भोजन मात्र जठराग्नि की शान्ति के लिए है, उसके साथ कोई राग या एषणा नहीं होनी चाहिए | श्रमण को इस प्रकार भिक्षा मांगनी चाहिए कि श्रावक को उसके कारण किंचित मात्र भी असुविधा नहीं हो | 215 हिन्दू शास्त्रों के अनुसार भी भिक्षा भेषज के रूप में स्वीकार करनी चाहिए आनन्द पाने के लिए नहीं, क्योंकि भिक्षु के लिए सभी सांसारिक आनन्द वर्जित थे और उसका क्षेत्र बहुत सीमित था अतएव इस बात की अत्यधिक सम्भावना थी कि वह भोजन पर अपनी पसन्द को केन्द्रित नहीं कर दे | 216
जैन शास्त्रों ने भोजन विषय में अनेक नियम बनाये हैं जिनसे कि भिक्षा पाने