SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 152
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 118 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति नैतिक सामर्थ्य भी महत्वपूर्ण थी। किन्तु, आर्यभूमि का जन्मा होना या उच्च जाति का होना, ब्राह्मण धर्म के प्रभाव के कारण था । 134 प्रवचन - सारोद्धार के अनुसार भी हेय व्यवसाय में लगे व्यक्ति दीक्षा के अयोग्य थे। जिनके सम्बन्धियों से अनुज्ञा नहीं मिलती हो वह भी संघ में नहीं जा सकते थे। 135 उल्लेखनीय है कि बौद्ध और जैन संघों के नियमानुसार यह इष्टकर नहीं समझा जाता था कि बहुत बड़े श्रमिक वर्ग को संघ में लेकर सांसारिक कर्तव्यों से विरत कर दिया जाये । कोई दास या ऋषि व्यक्ति बौद्ध संघ में तब तक प्रवेश नहीं कर सकते थे जब तक कि दास का मालिक उसे दासत्व से मुक्त न कर दे और ऋणी अपना ऋणशोधन न कर दे। 1 36 संघ में प्रवेश करने के लाभ स्पष्ट थे। 137 इसका कारण बहुसंख्या में लोग संघ प्रवेश के लिए उत्साहित भी थे और उत्सुक भी। अतएव संघ में अवांछनीय तत्वों के प्रवेश को रोकने के लिए जैन और बौद्ध संघ ने नियमों का विस्तार किया। यह नियम लगभग समान थे । 1 38 शारीरिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता देते हुए कुष्ठ, गंड, चर्मरोग, क्षय तथा अपस्मार पीड़ितों के लिए संघ प्रवेश निषिद्ध था । 1 39 इसी प्रकार वातिक भी प्रवेश नहीं पा सकते थे । 140 अतः कहा जा सकता है कि सामाजिक तथा राजनीतिक स्थिति को दृष्टि में रखते हुए संघ के लिए नियम बने । उदाहरण के लिए बुद्ध ने राज्य की क्रियाविधि में हस्तक्षेप से बचने के लिए सैनिकों तथा राज्यपदाधिकारियों, ध्वजबन्धचोरों, काराभेदकों, कषाघात से दण्डनीय लक्षणाहत लिखितक चोर तथा प्रामाणिक हत्यारों को संघ प्रवेश की अनुज्ञा नहीं दी । 14 1 इसी प्रकार कालान्तर में बुद्ध ने परिस्थितियों के अनुरूप नियम बनाये तथा अपात्रों की सूची में मातृहन्ता, पितृहन्ता, अरिहन्तघातक, भिक्षुणीदूषक तथा संघभेदक को सम्मिलित किया। 142 इन निषेधों से स्पष्ट तात्पर्य यह था कि संघ में कोई ऐसा व्यक्ति प्रविष्ट न हो जाये जो पहले से ही कानून के शिकंजे में कसा हो और जिसके कारण समस्त संघ राजकोप अथवा अपकीर्ति का भागी हो । रुधिरोत्पादक होना एवं चोरी से संघ प्रवेश भी अवांछनीय माने जाते थे। निष्क्रमण संस्कार जैन संघ में प्रवेश के लिए माता-पिता अथवा अभिभावक की अनुमति आवश्यक थी । 143 चतुर्थी तथा अष्टमी के अतिरिक्त प्रव्रज्या ग्रहण की जा सकती थी । आरम्भ में प्रव्रज्या महावीर के सम्मुख लेनी होती थी किन्तु कालान्तर में चैत्यगृह में
SR No.023137
Book TitleJain Agam Itihas Evam Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRekha Chaturvedi
PublisherAnamika Publishers and Distributors P L
Publication Year2000
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy