SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 101
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगमकालीन धार्मिक एवं दार्शनिक विचार • 67 8 44 18 = 62 (स) उद्धमाघातनिका नेवसंजीना सन्जीवादा (द) उच्छेदवाद (य) दिट्ठधम्मनिब्बानवाद इसके अतिरिक्त यज्ञ, भूत, प्रेत, पशु आदि की भी पूजा की जाती थी। इसके अतिरिक्त भी अन्य अनेक सम्प्रदाय थे जो लुप्त हो गये। क्रियावाद भगवान महावीर के वचनों को उद्दिष्ट कर चूर्णिकार कहते हैं कि क्रियावादी मतों के एक सौ अस्सी भेद हैं।160 उनमें से कुछ आत्मा को सर्वव्यापी मानते हैं, कुछ मूर्त, कुछ अमूर्त, कुछ श्यामाक परिमाण, कुछ तंदुल परिमाण और कुछ अंगुष्ठ परिमाण मानते हैं।6। कुछ लोग आत्मा को दीपशिखा के समान क्षणिक मानते हैं।162 क्रियावादियों के अनुसार शरीर तन्त्र कर्म से संचालित होता है। कर्मतन्त्र क्रिया से संचालित होता है। इस संसार की विविधता या परिवर्तन का मूल हेतु क्रिया है। जीव में जब तक प्रकम्पन, स्पन्दन, क्षोभ और विविध भावों का परिणमन होता है, तब तक वह कर्म परमाणुओं से बंधता रहता है। वह कर्म परमाणुओं से बद्ध होता है, तब नाना योनियों में अनुसंचरण करता है। आत्मा के अस्तित्व का स्पष्ट लक्षण है-अनुसंचरण या पुनर्जन्म। उसका हेतु है-कर्मबन्ध और उसका हेतु है-क्रिया। यह सब लोक में ही घटित होती है।163 इस मत के समर्थक मानते हैं कि दुःख उन्हीं को होता है जो कार्य को ठीक से नहीं समझते। एक व्यक्ति जो जीव को मारने का निश्चय करता है लेकिन मारता नहीं और एक अन्य व्यक्ति जो किसी को मारना नहीं चाहता है किन्तु अनजाने में मार बैठता है, दोनों ही कर्म से प्रभावित हैं पर दोनों के दुष्परिणाम विकसित नहीं हैं क्योंकि ज्ञानहीन क्रिया और क्रियाहीन ज्ञान फलवान नहीं होता है।165 क्रियावादियों के अनुसार अभिप्रेरक के अनुसार कर्मबन्ध होता है। चाहे हत्या नहीं की जाये किन्तु हत्या के विचार से भी कर्माश्रव आत्मा को ढक लेता है। मानसिक अथवा शारीरिक क्रिया मात्र से भी कर्म का परिपाक होता है।।66 यही कारण है कि बौद्ध धर्म कर्म में विश्वास करता है क्रिया में नहीं। उसके समर्थक महावीर को कर्मवादी, क्रियावादी कह कर पुकारते हैं क्योंकि जैन धर्म में सभी तत्व चैतसिक हैं। अत: प्रत्येक कर्म और क्रिया बन्धन उत्पन्न करती है।।67 जैन आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करने के साथ ही उसे अपरिवर्तनीय भी मानते हैं।16 शीलांक के अनुसार क्रियावादी यह मानते हैं कि बिना ज्ञान के भी केवल
SR No.023137
Book TitleJain Agam Itihas Evam Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRekha Chaturvedi
PublisherAnamika Publishers and Distributors P L
Publication Year2000
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy