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मुसाफिर ने आधे के हकदार को बुलाकर कहा- 'तुम साढ़े आठ ऊंट चाहते हो, उनके बदले अगर नौ ऊंट दिये जाएं तो कुछ आपत्ति तो नहीं होगी!' उसने उत्तर दिया-'नेकी पूछ-पूछ! भला इसमें आपत्ति ही क्या है ? मैं आपके गुण गाऊंगा।' मुसाफिर ने उसे नौ ऊंट दे दिये।
तदनन्तर उसने चौथाई के हकदार को बुलाया और कहा 'तुम सवाचार ऊंट चाहते हो, लेकिन पांच ऊंट ले लो।' वह भी प्रसन्न हुआ।
सब के पीछे आठवें हिस्से का हकदार आया। वह दो से कुछ अधिक ऊंट चाहता था, मगर उसे तीन ऊंट दिये गये। उसकी प्रसन्नता का पार न रहा।
इस प्रकार उस मुसाफिर ने उन्हीं लोगों के सत्तरह ऊंट उन्हीं लोगों में बांटकर उन्हें प्रसन्न कर दिया। उनकी लड़ाई मिट गई और वह अपने ऊंट पर बैठ कर चला गया।
यह हृदय का न्याय है। यदि यह न्याय आप को पसंद आया हो तो आप भी सब भाइयों के ईश्वर की ओर से संबंधी हैं। यदि आप अपने इस संबंध को दृढ़ बनाना चाहते हैं तो सबको ईश्वर की सन्तान मानकर मुसाफिर की तरह अपना ऊंट घुसेड़कर उनका झगड़ा मिटाओ। ऐसा करने से आप ईश्वर के बन जाएंगे।
खयाल आता है मुझे, दिलजान तेरी बात का।
खबर तुझको है नहीं, आगे अंधेरी रात का।। जोबन तो कल ढल जायगा, दरियाव है बरसात का।
बोर कोई न खाएगा, उस रोज तेरे हाथ का।। तू तो निकल कल जाएगा, रह जायगी मिट्टी पड़ी। नित हरी रहती नहीं, नादान! फूलों की छड़ी।।
जो ईश्वर का होगा, जिसे ईश्वर या धर्म का बनने का विचार होगा, उसे अपने आपको भूलकर दूसरे पर ध्यान देना होगा। जैसे अच्छे भाई अपना आपा भूलकर अपने भाई की भलाई का ख्याल करता है, उसी प्रकार संसार की भलाई पर ध्यान देना होगा।
. कदाचित् कोई यह कहे कि संसार की भलाई-बुराई से आपको क्या प्रयोजन है? आप अपनी चिन्ता कीजिए, संसार की चिन्ता क्यों करते हैं? इसका संक्षिप्त समाधान यह है कि संतों का हृदय संसार के जीवों की हलचल देखकर दया से कांपता रहता है। वे विचारते हैं कि ये प्राणी क्या करने आये ४० श्री जवाहर किरणावली