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पण्डित मनुष्य वही है जो नरक जाने के काम न करे, तिर्यंच होने के काम न करे, मनुष्य या देव होने के भी काम न करे, वरन् एकान्त मोक्षप्राप्ति के कार्य करे - मोक्ष ही एकमात्र जिस का ध्येय हो ।
किस-किस कार्य से कौन-कौन सी गति प्राप्त होती है, यह बात भी ज्ञानियों ने स्पष्ट रूप से बतला दी है। उन्होंने कहा है कि महारंभी, महापरिग्रही, पंचेन्द्रिय, घातक और मद्य - मांस का सेवन करने वाला नरक में जाता है। ऐसे काम करने वाला पण्डित नहीं है, किन्तु सब प्रकार के आरंभ और परिग्रह के त्यागी मुनि ही पण्डित हैं, चाहे वह पढ़े हुए न भी हों । सर्वारंभ और सर्वपरिग्रह को त्यागने वाला अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी और प्रत्याख्यानी की चौकड़ियों को लांघ गया है। अगर उसमें संज्वलन का भी आरंभ और परिग्रह न रहे, तो वह उसी भव में मोक्ष जाता है, अगर वह विद्यमान रहे तो परम्परा से मुक्त होता है ।
इसके पश्चात् गौतम स्वामी पूछते हैं- भगवन् ! बालपंडित मनुष्य मर कर कहां जाता है?
जो जीव तत्व को जान गया है, जिसने वस्तु-स्वरूप को भलीभांति ठीक-ठीक समझ लिया है, परन्तु आंशिक रूप में ही अपने ज्ञान के अनुसार आचरण कर सकता है अर्थात् जो कुछ बातों को त्याग सका है और कुछ को नहीं त्याग सका है, वह जीव बालपंडित कहलाता है। यहां यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि अगर उस जीव ने वस्तु-स्वरूप को भलीभांति जान लिया है तो उसे पंडित क्यों नहीं कहते? इसका उत्तर यह है कि अगर पंडितपन सिर्फ ज्ञान पर ही निर्भर होता तो एकान्त पंडित और बालपंडित की व्याख्या में कोई अन्तर न रहता । यद्यपि ज्ञान या बुद्धि बालपंडित और एकान्त पंडित दोनों में ही है, परन्तु पंडितपन या बालपन को यहां ज्ञान या बुद्धि के साथ नहीं जोड़ा गया है। इनका संबंध क्रिया के साथ है। जो पुरुष ज्ञान के साथ तदनुसार पूरा आचरण भी करता है वही पंडित है क्योंकि ज्ञान का फल आचरण है और यह फल उसे प्राप्त हो गया है। जिसे पूर्णरूप में चरित्र रूप फल प्राप्त नहीं हुआ, कुछ अंश में ही प्राप्त हुआ है, वह न एकान्त पंडित है, न एकान्त बाल है, इसलिए उसे बालपंडित कहते हैं ।
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जब तक क्रिया की मान्यता रही है, तब तक आनन्द रहा है। जब से लोगों ने क्रिया के प्रति उपेक्षा दिखलाई और कोरे अक्षर ज्ञान में पड़ गये तभी से गड़बड़ हुई है। वास्तव में वही ज्ञान सफल है, जिससे चारित्र की उत्पत्ति हो ।
२६२ श्री जवाहर किरणावली