SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 230
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इस प्रकार की आशंका के कारण बहुतों ने यह मान लिया है कि जीना - मरना किसी के हाथ में नहीं है । जितनी आयु है, उतने ही दिन जीव जयेगा । इसलिये किसी जीव को मौत से बचाने से क्या लाभ है? चाहे कोई रोगी रहे या निरोग रहे, संयत आहार-विहार करे या असंयत आहार-विहार करे, जीयेगा उतना ही, जितना आयुष्य है । ऐसा समझने वाले लोगों की विवेक - विज्ञान की क्षमता रूप बुद्धि की सावधानी नष्ट हो गई है। अगर किसी भी जीव की मृत्यु अकाल में नहीं हो सकती तो तलवार से टुकड़े-टुकड़े कर देने पर भी किसी की मृत्यु नहीं होनी चाहिए । फिर तो यह भी न मानना होगा कि किसी के आघात से कोई जीव मर जाता है। यदि बचाने से कोई जीव बच नहीं सकता तो मारने से मरना भी नहीं चाहिए। ऐसी अवस्था में हिंसा हो ही नहीं सकती। कल्पना कीजिए, एक आदमी ने तलवार द्वारा दूसरे को मार डाला। जब मारने वाले पर अभियोग चला तो अपनी सफाई में वह कहता है- 'मरने वाले की आयु जितनी थी, वह उतना जीवित रहा। आयु समाप्त होने पर वह मर गया ।' तो क्या सरकार उसे छोड़ देगी? कदाचित् कहने लगे कि राज्य का कानून अपूर्ण है, इसलिए वह प्रामाणिक नहीं माना जा सकता, तो शास्त्रीय नीति तो पूर्ण है । उसमें हिंसा को पाप क्यों कहा है? और समस्त संसार के शास्त्र इस विषय में एकमत क्यों हैं? अगर अकाल में किसी की मृत्यु नहीं होती तो फिर शरीर-विषयक सावधानी रखने की और दवा लेने की क्या आवश्यकता है ? फिर तो धर्मशास्त्र के साथ चिकित्सा शास्त्र भी निराधार ठहरता है । शास्त्र कहता है कि आयुष्य दीपक के तेल के समान है। दीपक में रात भर के लिए जो तेल भरा हुआ है, उसमें अगर एक बत्ती डाल कर जलाओगे तो रात भर प्रकाश देगा, लेकिन अगर उसमें चार बत्तियां डाल दो तो भी क्या वह रात भर प्रकाश देगा? 'नहीं !' इसी प्रकार आयुकर्म के पुद्गल खूटते (समाप्त होते) हैं, परन्तु यदि सावधानी से काम लो तो आयु और माता-पिता संबंधी आहार पूरे समय तक काम देंगे, अन्यथा बीच में ही खूट जाएंगे। यह बात मैं अपनी तरफ से नही कहता । शास्त्र में कहा हैअज्झवसाण निमित्ते आहारे वेयणा - पराधाए । फासे आणापाणू, सत्तविहं छिज्जए आऊ ।। अर्थात्– आयु का क्षय सात प्रकार से होता है भगवती सूत्र व्याख्यान २१७
SR No.023135
Book TitleBhagwati Sutra Vyakhyan Part 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Aacharya
PublisherJawahar Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy