________________
असाधारण और महान् थी। अतएव उस तपश्चर्या के कारण भगवान् को 'श्रमण' यह सार्थक विशेषण लगाया जाता है। केवलज्ञान की प्राप्ति से पहले
और बाद में भगवान् की आत्मा तो एक ही थी। केवलज्ञान प्राप्त होने से भगवान् कोई दूसरे नहीं हो गये थे। अतएव उस असाधारण तपस्या के कारण उन्हें केवलज्ञानी होने के पश्चात् भी 'श्रमण' कहना अनुचित नहीं है।
अथवा-'समण' शब्द का संस्कृत रूप ‘समनाः' भी होता है। 'शोभनेन मनसा सह वर्त्तत्त, इति समनाः' अर्थात् जो प्रशस्त मन से युक्त हो-जिसका मन प्रशस्त हो-वह 'समन' या 'समण' कहलाता है।
प्रश्न- भगवान् केवली अवस्था में तेरहवें गुणस्थान में वर्तमान थे। उनके योग विद्यमान तो थे पर वे मनोयोग के व्यापार से रहित थे। मन में जानना या विचारना इन्द्रियजन्य परोक्ष ज्ञान कहलाता है और भगवान् परोक्ष ज्ञान से रहित थे। पोद्गलिक आकृति के रूप में उनमें मन रहता है परन्तु वे उसे काम नहीं लेते। इसी से उन्हें मनोऽतीत कहते हैं। ऐसी दशा में भगवान् प्रशस्त मन वाले कैसे कहला सकते हैं?
उत्तर-स्तुति का प्रकरण होने से भगवान् को 'समन' कहने में कोई बाधा नहीं है। भक्तजन भक्ति में इतने विह्वल हो जाते हैं कि उनकी तुलना बालक से की जा सकती है। बालक बनकर भक्त भगवान् की स्तुति करते हैं। यद्यपि जल में स्थित चन्द्रमा हाथ नहीं आता है और न बालक अपनी माता की गोद में बैठा-बैठा चन्द्रमा को पकड़ ही सकता है, फिर भी बालक चन्द्रमा को पकड़ने के लिए झपट पड़ता है। इससे चन्द्रमा तो हाथ नहीं आता, मगर बालक का मन हर्षित हो जाता है।
'कल्याण मंदिर के कर्ता ने इसी भाव को दूसरे शब्दों में प्रकट किया है। एक बालक समुद्र देखने गया। उसके पिता ने उसके आने पर पूछा-समुद्र कितना बड़ा है? उत्तर में बालक ने अपने दोनों हाथ फैला दिये और कहा इतना बड़ा है। यद्यपि समुद्र बालक के हाथों के बराबर नहीं है फिर भी बालक अपने हर्ष को किस प्रकार प्रकट कर सकता था। उसने हाथ फैलाकर ही अपना भाव और हर्ष प्रकाशित किया।
इसी प्रकार हमारे पास हर्ष प्रकट करने के लिए और क्या है? अतएव प्रसन्न मन रहकर हम भगवान् की स्तुति करते हैं।
अथवा 'समण' इस प्राकृत शब्द की संस्कृत-छाया भी 'समण' ही समझना चाहिए। 'सम' उपसर्ग पूर्वक 'अण-भाषणे धातु से 'समण' शब्द बना है। इसका अर्थ है-संगत भाषण करने वाला। भगवान् जो भाषण करते हैं वह
- श्री भगवती सूत्र व्याख्यान ७१