________________
आहार नहीं कहा जा सकता। अतएव गृहीत पुद्गलों में से असंख्यात् भाग का आहार करता है, इसका अभिप्राय यह है कि असंख्यातवां भाग शरीर रूप में परिणत होता है।
आहार के जो पुद्गल ग्रहण किये हैं, उनका अनन्त भाग अस्वाद में आता है; अर्थात् गृहीत पुद्गलों के अनन्तवें भाग का रस रूप में रसना इन्द्रिय आस्वादन कर सकती है। मान लीजिए, किसी ने मिश्री की डली मुंह में रखी। उस डली पर जीभ फिरी, उसका स्वाद आया। मगर डली का भीतरी भाग अछूता ही रह गया-उसका आस्वादन नहीं हुआ। इस प्रकार जीभ ऊपर का आस्वाद ले सकती है, भीतर का उसे पता नहीं चलता। अतएव वह अनन्तवें भाग पुद्गलों के रस का ही आस्वादन कर सकती हैं, सब का नहीं। इसी कारण यह कहा गया है कि अनन्तवें भाग का आस्वादन होता है। यहां तक अड़तीस द्वारों का विवेचन हुआ।
अब संग्रह गाथा के 'सव्वाणि' पद की व्याख्या आरंभ की जाती है। गौतम स्वामी प्रश्न करते हैं- हे भगवन्! नारकी जीव जिन पुद्गलों को शरीर रूप में परिणत करते हैं। क्या वे सब पुद्गलों का आहार करते हैं या एक देश का आहार करते हैं?
भगवान् उत्तर देते हैं-गौतम! समस्त पुद्गलों का आहार करते हैं।
तात्पर्य यह है कि नारकी जीवों ने आहार के जिन पुद्गलों को शरीर के रूप में परिणत किया है, उन सबका आहार वे करते हैं। यहां सब पुद्गल कहने से विशिष्ट पुदगल ही समझने चाहिए जो पुद्गल ग्रहण करने के पश्चात् गिर गये हों, उन्हें यहां छोड़ देना चाहिए- उनको ग्रहण नहीं करना चाहिए। अगर ऐसा न किया गया तो विरोध आ जाएगा। जो वचन जिस अपेक्षा से कहा गया हो उसे उस अपेक्षा से समझना चाहिए। कहा भी है:
जं जह सुत्ते भणियं, तहेव जइ तं वियालणा णत्थि। किं कालियानुओगो, दिट्ठो दिट्ठिप्पहाणेहिं।।
अर्थात्- सूत्र में जो बात जिन शब्दों में कही गई है, अगर शाब्दिक रूप में उसे उसी प्रकार माना जाये और वक्ता की विवक्षा के विचार का ख्याल न किया जाये तो ज्ञानी जन कालिक अनुयोग का उपदेश कैसे करें?
___ आजकल साधुओं के ज्ञान में न्यूनता आ गई है, अतएव वे टब्बा बांच देने में ही सूत्र के व्याख्यान की इतिश्री समझ लेते हैं। मगर सूत्र में नवीन और सूक्ष्म बातें उतनी ही खोजी जा सकती हैं, जितनी खोजने वाले में शक्ति हो। हां, शक्ति ही न हो तो बात दूसरी है। जिनकी दृष्टि सूक्ष्म और पैनी है, वे २५० श्री जवाहर किरणावली