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नरक दुर्गन्धमय है। वहां रक्त-पीव आदि घोर अशुचिमय पदार्थ भरे हुए हैं। वहां की भूमि इतनी त्रासजनक है कि उसका स्पर्श करते ही ऐसी वेदना होती है, मानो एक साथ हजार बिच्छूओं ने काट खाया हो। ऐसी भूमि में रहने वाले नारकी जीव क्या आहार करते होंगे? भगवान से गौतम स्वामी ने इस अभिप्राय से यह प्रश्न पूछा है कि-नरक में और कोई वस्तु तो है नहीं, फिर क्या जो अशुचिमय वस्तु नरक में है, उसी को नारकी जीव खाने की इच्छा करता है? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान कहते हैं-हां, गौतम ! नरक के जीव खाने की इच्छा करते हैं। नारकी इस कनिष्ठ अवस्था में पड़े हुए हैं
और नरक में रक्त पीव आदि वस्तुएं ही हैं तथापि वे इस आहार के लिए प्रार्थना करते हैं।
सुसंस्कारी पुरुष जिस वस्तु से घृणा करते हैं, उसी को संस्कार विहीन या नीच प्रकृति के लोग बड़े उत्साह से खाते-पीते हैं। यह बात प्रत्यक्ष देखी जाती है। जब मनुष्य-लोक में ही इतना महान् रुचि-वैचित्र्य देखा जाता है, तो नरक का क्या पूछना है? वहां के जीव निकृष्ट वस्तुओं के आहार की याचना करें, यह अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता।
मैं एक बार पन्नवेल गया था। वहां जब जंगल जाता तो जिन मच्छियों को मारकर सुखाया गया था, उनकी दुर्गन्ध आती थी। दुर्गन्ध इतनी उग्र थी कि खड़ा रहना कठिन होता था। उन मच्छियों में से बाम नाम की मच्छी तो और भी अधिक बदबू देती थी। मैंने सोचा जिन मच्छियों से ऐसी असह्य दुर्गन्ध निकलती है, उन्हें भी लोग बड़े चाव से खा जाते हैं। वह बाम मछली जो अतिशय बदबूदार होती है, उसके विषय में लोगों का कहना है कि खाने वाले लोग बाम मछली को ऐसी रुचि से खाते हैं जैसे दूसरे लोग मिठाई खाते हैं। इस प्रकार मनुष्य प्राणी भी उस चीज को रुचिपूर्वक पेट में डाल लेते हैं जिसके पास खड़ा भी नहीं रहा जाता। गांधीजी ने एक पुस्तक में तो यहां तक लिखा है कि किसी देश के निवासी विष्ठा भी खा जाते हैं।
जब मनुष्य अनेक प्रकार के उत्तम एवं स्वादिष्ट भोज्य पदार्थों के रहते हुए भी ऐसी-घृणास्पद नीच वस्तुएं खा जाते हैं और उसमें सुख का अनुभव करते हैं तो नरक के जीवों का भूख के असह्य दुःख से व्याकुल हो जाने पर अशुचिमय पदार्थों को खाने में सुख मानना आश्चर्यजनक नहीं कहा जा सकता। लेकिन ज्ञानीजन कहते हैं कि मान लेने से ही सुख नहीं हो जाता। इस प्रकार माना हुआ सुख वस्तुतः दुःख रूप है। जीव सुख की भ्रान्ति से ही बाह्य भोजन की इच्छा करता है लेकिन वास्तविक सुख वह है जिसमें
श्री भगवती सूत्र व्याख्यान २३७
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