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है। जो कर्म करोड़ों भव करने पर भी नहीं छूटते, वे कर्म धर्माग्नि, ध्यानाग्नि
और तप की अग्नि में एक क्षण भर में भस्म किये जा सकते हैं। उदाहरण के लिए प्रदेशी राजा को देखिए। उसने ऐसे घोर कर्म बाँधे थे कि एक एक नरक में अनेक अनेक बार जाने पर भी सब कर्म पूरे न भोगे जावें। उसने निर्दयता से प्राणियों की हिंसा की थी। वह अपने मत की परीक्षा के लिए चोरों को कोठी में बंद कर देता था और कोठी को चारों ओर से ऐसी मूंद देता था कि कहीं हवा का प्रवेश न हो सके। वह मानता था कि जीव और काय एक है अलग नहीं। इसी बात को देखने के लिए वह ऐसा करता था। अगर जीव और शरीर अलग-अलग होंगे तो चोर के मरने पर भी जीव दिखाई देगा। कोठी एकदम बंद है तो जीव निकलकर जायेगा कहाँ? कई दिनों बाद वह चोर को कोठी से बाहर निकालता। चोर मरा हुआ मिलता। राजा प्रदेशी कहता - देखो, काया के अतिरिक्त आत्मा अलग नहीं है। यहां अकेला शरीर ही दिखाई दे रहा है।
कभी-कभी प्रदेशी राजा किसी चोर को चीर डालता और उसके टुकड़े-टुकड़े करके आत्मा को देखता था। जब आत्मा दिखाई न देता तो अपने मत का समर्थन हुआ समझता और कहता कि शरीर से अलग आत्मा नहीं है। तात्पर्य यह कि प्रदेशी राजा घोर हिंसक था और महान् पाप करता था।
जो आत्मा अज्ञान अवस्था में घोर पाप करता है, ज्ञान होने पर वही किस प्रकार ऊँचा उठ जाता है, इसके लिए प्रदेशी का उदाहरण मौजूद है।
धन धन केशी सामजी, सारया प्रदेशी ना काम जी।
केशी श्रमण ने प्रदेशी राजा को समझाया, तब वह जीव और शरीर को अलग-अलग मानने लगा। पहले वही प्रदेशी लोगों की आजीविका छीन लेता था। और साधु सन्तों के प्राण लेने में संकोच नहीं करता था। चित नामक प्रधान ने केशी स्वामी से प्रार्थना की कि -महात्मन! आप सिताम्बिका नगरी में पदार्पण कीजिये। वहां अतीव उपकार होने की संभावना है। वहां के लोग बड़े धर्मात्मा हैं। वे बहुत प्रेम से आपका उपदेश सुनेंगे। तब केशी श्रमण ने उत्तर दिया- हे चित्त! एक सुन्दर बगीचा है। उसमें तरह-तरह के फल लगे हैं। अत्यन्त आनन्द दायक वह बगीचा है। बताओ ऐसे उद्यान में पक्षी आना चाहेगा कि नहीं? चित्त-क्यों नहीं महाराज! अवश्य आना चाहेगा।
-श्री भगवती सूत्र व्याख्यान १६५