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यह टीका 'किंचित् विशेषतः' अर्थात् कुछ विस्तार से लिखी है। इस प्रकार यद्यपि वह प्राचीन टीका आज देखने में नहीं आती, फिर भी आचार्य के कथन से उसका होना स्पष्ट रूप से सिद्ध है। आचार्य ने यहां भगवतीसूत्र की टीका का ही निर्देश नही किया है अपितु चूर्णी का भी निर्देश किया है। ‘एतट्टीका-चूर्णी इस पद में 'एतत् सर्वनाम भगवती सूत्र के लिए ही आया है, यह निसन्देह है। यह एक समस्त पद है और इससे भगवती सूत्र की टीका का तथा चूर्णी का अभिप्राय प्रकट होता है। अतः जान पड़ता है कि भगवती सूत्र की यह टीका बनने से पहले टीका और चूर्णी दोनों थीं। इन में से चूर्णी तो आज भी उपलब्ध है, पर टीका अभी तक उपलब्ध नहीं है।
टीका रचने की प्रतिज्ञा करने के पश्चात् आचार्य ने इस सूत्र की प्रस्तावना लिखी है। प्रस्तावना में वह सूत्र को कितने बहुमान से देखते हैं, यह जानने योग्य है। प्रस्तावना के संक्षिप्त शब्दों में ही उन्होंने सूत्र का सार भर दिया है। प्रस्तावना वास्तव में अत्यन्त भावपूर्ण और मनोहारिणी है।
प्रस्तावना में उन्होंने प्रस्तुत सूत्र के नाम की चर्चा की है। इस सूत्र का नाम 'विवाहपण्णति' या 'भगवती सूत्र' है। यह नाम क्यों है, इसकी चर्चा आगे की जायेगी।
टीकाकार ने इस पंचम अंग को उन्नत और विजय में समर्थ जयकुंजर हाथी के समान निरूपण किया है। जयकुंजर हाथी में और भगवती सूत्र में किस धर्म की समानता है, जिसे आधार बनाकर भगवती सूत्र को कुंजर की उपमा दी गई है? यह स्पष्ट करते हुए आचार्य ने सुन्दर श्लेषात्मक भाषा का प्रयोग किया है। उसका ठीक-ठाक सौन्दर्य संस्कृतज्ञ ही समझ सकते हैं, पर सर्वसाधारण की साधारण जानकारी के लिए उसका भाव यहां प्रकट किया जाता है।
__ जयकुंजर अपनी ललित पदपद्धति से प्रबुद्धजनों का मनोरंजन करता है अर्थात् जयकुंजर हाथी की चाल सुन्दर होती है। वह इस प्रकार धीरे से पैर रखता है कि देखने में अतीव मनोहर प्रतीत होता है। इसी प्रकार भगवती सूत्र भी अपनी ललित पद्पद्धति से अर्थात् सुन्दर पदविन्यास से विज्ञजनों का मनोरंजन करने वाला है। इस सूत्र की पदरचना ऐसी ललित और मनोहर है कि समझने वाले का चित्त उसे देखकर आनंदित हो जाता है। मगर प्रबुद्धजन ही उस आनंद का अनुभव कर सकते हैं। अज्ञ नासमझ लोगों को अगर आनंद न आवे तो इसकी पद रचना में किसी प्रकार का दोष नहीं है, जैसे अंधा आदमी हाथी न देख सके तो इसमें हाथी का दोष नहीं है।
- श्री भगवती सूत्र व्याख्यान ७