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हो जायेगा कर्म-बन्ध होने से वह मुक्तता नहीं रहेगी। संसारी जीवों से उसमें कोई विशेषता न रह जायेगी।
बुद्ध से किसी ने पूछा-'मुक्तात्मा का स्वरूप क्या है?' बुद्ध ने उत्तर दिया-दीपक के बुझ जाने पर उसका जो स्वरूप होता है, वही मुक्ति का स्वरूप है। अर्थात् मुक्त होने पर आत्मा शून्य रूप हो जाता है।
विचार करने पर उक्त दोनों मत युक्ति-संगत प्रतीत नहीं होते। ज्ञान आत्मा का स्वभाव है। स्वभाव का नाश हो जाने पर स्वभाववान् ठहर नहीं सकता। अतएव ज्ञान के साथ आत्मा का भी नाश मानना पड़ेगा। अगर मुक्त अवस्था में आत्मा का नाश मान लिया जाये तो फिर मोक्ष के लिये कौन कष्ट उठायेगा? कौन अपना अस्तित्व गंवाने के लिए प्राप्त सुखों को त्याग कर तपस्या के कष्ट उठाना पसंद करेगा? इसके अतिरिक्त ज्ञान से राग-द्वेष का होना कहना भी ठीक नहीं है। ज्यों-ज्यों ज्ञान की वृद्धि होती है, त्यों-त्यों राग-द्वेष की वृद्धि नहीं, वरन् हानि देखी जाती है। इससे यह सिद्ध होता है कि ज्ञान का परिपूर्ण विकास होने पर राग-द्वेष भी नहीं रहते। मुक्तात्मा पूर्ण ज्ञानी है अतएव उन में राग-द्वेष की उत्पत्ति होना संभव नहीं है।
एक विकार ही दूसरे विकार का जनक होता है। आत्मा जब पूर्ण निर्विकार दशा प्राप्त कर लेती है, तब विकार का कारण न रहने से उसमें विकास उत्पन्न होना असंभव है। अतएव राग-द्वेष के भय से मुक्तात्मा को जड़ मानना उचित नहीं है।
इसी प्रकार आत्मा के विनाश को मोक्ष या निर्वाण मानना भी भ्रमपूर्ण है। अगर आत्मा की सत्ता है, तो आत्मा का भी कभी नाश नहीं हो सकता। जैसे सर्वथा असत् की उत्पत्ति नहीं हो सकती, उसी प्रकार सत् का सर्वथा विनाश भी नहीं हो सकता। जो है, वह सदैव रहता है और जो नहीं है वह कभी उत्पन्न नहीं हो सकती, उसी प्रकार सत का सर्वथा विनाश भी नहीं हो सकता। जो है, वह सदैव रहता है और जो नहीं है वह कभी उत्पन्न नहीं होता। जिसे हम लोग वस्तु की उत्पत्ति या विनाश समझते हैं, वह वास्तव में वस्तु की अवस्थाओं का परिवर्तन मात्र है। वस्तु एक अवस्था त्यागती है और दूसरी अवस्था धारण करती है। दोनों अवस्थाओं में वस्तु की मूल सत्ता विद्यमान रहती है। इससे यह साबित है कि किसी भी वस्तु का मूल स्वरूप कमी नष्ट नहीं होता। आधुनिक विज्ञान और हमारा अनुभव इस सत्य की साक्षी देता है। ऐसी अवस्था में आत्मा का सर्वथा नष्ट हो जाना कैसे माना जा सकता है?
- श्री भगवती सूत्र व्याख्यान १२५