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________________ आओ संस्कृत सीखें 4335 चाणक्य: हे श्रेष्ठी ! यदि ऐसा है तो खुश प्रजा से राजा प्रतिप्रिय (बदले में प्रिय वस्तु) चाहता है। चन्दनदास: फरमाइए ! इस मनुष्य के पास से आप क्या चाहते हो? चाणक्य: हे श्रेष्ठी! यह चंद्रगुप्त का राज्य है, नंद राजा का नही। अर्थरुचि ऐसे नंदराजा को ही अर्थ (धन) का संबंध प्रीति उत्पन्न करता है। चंद्रगुप्त राजा को तो आपका अक्लेश ही प्रीति उत्पन्न करता है। चन्दनदासः (खुश होकर) हे आर्य ! आपके द्वारा मैं अनुगृहीत हूँ। चाणक्यः संक्षेप में राजा के विषय में अविरुद्ध वर्तन होना चाहिए। चन्दनदास: वह कौन अभागी है, जो राजा से विरुद्ध है - ऐसा आपके द्वारा जाना गया है। चाणक्य: पहले तुम ही । चन्दनदासः (कान बंद कर) पाप शांत हो, पाप शांत हो, ऐसा न बोले, ऐसा न बोलें। तृण को अग्नि के साथ विरोध कैसे? चाणक्यः यह ऐसा विरोध है, जो तुम अभी भी राजा के अहितकारी अमात्य राक्षस के गृहजन को अपने घर में लाकर रखते हो। चन्दनदासः आर्य! यह असत्य है, किसी अज्ञात व्यक्ति ने आपको निवेदन किया है। चाणक्य: हे श्रेष्ठी ! शंका रहने दो । भयग्रस्त पहले के राजपुरुष, नगरजनों को नहीं चाहते हुए भी घर में अपने लोगों को छोड़कर देशांतर में जाते है, अत: उन्हें छिपाना, गुन्हा ही है। चन्दनदासः उस समय हमारे घर में अमात्य राक्षस के गृहजन थे । चाणक्य पहले कहते थे 'असत्य है और अब कहते हो 'वे थे' ये परस्पर विरोधी वचन हैं। चन्दनदासः इतना ही मेरी वाणी का छल कपट है। चाणक्य: चंद्रगुप्त राजा के विषय में छल का अपरिग्रह है अतः राक्षस के गृहजनों को सौंप दो । तुम्हारे छल का अभाव हो। चन्दनदास: हे आर्य ! मैं आपसे विनती करता हूँ कि उस समय, हमारे घर में अमात्य राक्षस के गृहजन थे। चाणक्यः तो अब कहाँ गए?
SR No.023124
Book TitleAao Sanskrit Sikhe Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivlal Nemchand Shah, Vijayratnasensuri
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2011
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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