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________________ 1331 आओ संस्कृत सीखें इस अपार संसार सागर में प्राणियों को महारत्न की तरह अमूल्य मनुष्यपना अति दुर्लभ है। यदि मैं मनुष्यपने का फल प्राप्त न करूँ तो अभी पाटण मे रहते हुए भी चोरों द्वारा ठगा गया हूँ। जैसे तैसे व्यक्ति को उपदेश नहीं देना चाहिए । देखो, मूर्ख ऐसे बंदर ने सुघरी (पक्षी) को घर रहित बना दिया । दमनक ने कहा 'यह कैसे?' उसने कहा, किसी वन प्रदेश में खीजड़े का वृक्ष है, उसमें लटकनेवाली शाखा में जंगली चिड़ा व चिड़िया रहते थे । उसके बाद किसी समय वे दोनों सुखपूर्वक रहे हुए थे, तभी हेमंतऋतु का मेघ धीरे-धीरे बरसने लगा। उस समय पवनयुक्त बरसात से भीगा हुआ, रोमांचित देहवाला, दांतों की वीणा को बजाता हुआ और कंपता हुआ कोई बंदर खीजड़े के झाड़ के मूल को पकड़कर बैठा। उसके बाद उसकी इस स्थिति को देखकर सुघरी ने कहाः 'हे भद्र, तू हाथ-पांव सहित पुरुष की आकृतिवाला दिखता है तो हे मूढ़ ! ठंड़ी से क्यों दुःखी है? घर क्यों नहीं बनाता है? ___इस बात को सुनकर गुस्से में आकर उस बंदर ने कहा, 'हे अधम! तू क्यों मौन नहीं रहती है? 'अहो ! उसकी धृष्टता ! आज मुझ पर हँस रही है । सुई जैसे मुखवाली दुराचारिणी, अपने आपको पंडित माननेवाली रंडा बोलती हुई शरमाती नहीं है? तो क्यों न उसे मारूँ? इस प्रकार प्रलापकर उसको कहा 'हे मुग्धे ! तुझे मेरी चिंता करने की जरूरत नहीं है।' कहा भी है - 'श्रद्धालु को कहो, पूछनेवाले को विशेष कहो, परंतु श्रद्धा रहित को कहना तो अरण्य रुदन जैसा ही होता है । तो (हे भाई) ज्यादा कहने से क्या फायदा? उस समय उस बंदर ने खीजड़े के झाड़ पर चढ़कर उसके घोसले के सौ-सौ टुकड़ें कर दिए। इसलिए मैं कहता हूँ - 'जैसे तैसे व्यक्ति को उपदेश नहीं देना चाहिए।
SR No.023124
Book TitleAao Sanskrit Sikhe Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivlal Nemchand Shah, Vijayratnasensuri
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2011
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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