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(४४) . मूल तथा भाषांतर. ___ वे मकरसंक्रांतिमां उत्तर तथा दक्षिण दिशामां थता किरणना प्रसरने कहे छे:लवणे तिसई तीसा दीवेण पणचत्त सहस अह जम्मे । लवणम्मि जोअणतिगं सतिभाग सहस्स तित्तीसा ॥३९॥ _____ अर्थ-सूर्य सौथो वहारना मांडलामां आवे त्यारे ते लवण समुद्रने विषे त्रणसाने त्रीश योजन जाय छे, तेथीं लवण समुद्र संबंधी त्रणसोने त्रीश तथा द्वीप संबंधी पीस्तालीश हजार ए बन्ने मळीने ४५३३० योजन उत्तर दिशामां किरणनो प्रसर छे-तथा दक्षिणमा ( लवणनी दिशामां) तेत्रोश हजार ने त्रण योजन तथा एक योजननो त्रीजो भाग ३३००३ एटला योजन किरणनो प्रसर छे. ३९.
हवे उंचे वथा नीचे (उर्ध्व तथा अघोदिशामां) तेजना प्रसरनुं स्वरुप कहे छे:मयरम्मि वि ककम्मि वि हिट्ठा अट्टार जोअणसयाइ। जोयणसयं च उड़े रविकर एवं छसु दिसासु ॥ ४० ॥. . अर्थ-मकर विगेरे छ संक्रांतिने विषे तथा कर्क विगेरे छ संक्रांनिने विषे अर्थात् सर्व मांडलामां वर्तता सूर्यनुं तेन (किरणनो प्रसर ) अढारसो योजन सुधी नीचे जाय छे. कारण के सूर्थथी आठसो योजन समभूतल छे. अने समभूतळनी अपेक्षाए एक हजार योजन नीचे अघोग्रामा छे. ते ( अधोग्रामो.) जंबूदीपना पतिम विदेह क्षेत्रमा मेह पर्वतथी आरंभीने जगतीनी सन्मुख जतां एक एक प्रदेशनी हानो वडे क्षेत्र नोचुं नीचुं यतुं जाय छे, ते छेक छेल्ला विजयद्पने स्थाने वेताळीश हजार योजन नीचो भूभाग रहेलो छे. ते विषे लघुक्षेत्र समा मां कत्यं छे के-" मेरुथी पश्चिमे बेंताळीश इनार योजन जना माते एक हजार योजन नोची पृथ्वी