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मो कायस्थिति प्रकरण. (१९) विषे अने युगलिया मनुष्यने विपे उत्पत्तिने आश्रीने वे भव ज करे छे. केमके युगलियानो भव कर्या पछी ते अवश्य देवपणे ज उत्पन्न थाय छे. १९. भूजलपवणग्गी मिह, वणाभुवाइसु वसु अ भुवाई। पूरंति असंखभवे, वणा वणेसु अ अणंतभवे. ॥२०॥ ___मूलार्थ-पृथ्वीकाय, जळकाय, वायुकाय अने अग्निकाय अन्योन्यने विषे असंख्याता भव पूरे छे, कनस्पतिकाय पृथ्व्यादिक चार कायने विषे असंख्याता भव पूरे छे, पृथिव्यादिक चार काय बनस्पतिकायने विषे असंख्याता भव पूरे छे, अने वनस्पतिकाय वनस्पतिकायने विषे अनंता भव पूरे छे. २०.
टीकार्थ-पृथ्वीकाय, जळकाय, वायुकाय अने अग्निकाय परस्पर एकांतर भव ग्रहण करवाना प्रकारवडे असंख्याता भव पूरे छे. जेम कोइ पृथ्वीकायिक जीव अपकाय, वायुकाय अने अग्निकायमांना कोइ एकने विषे उत्पन्न थाय, त्यांथी पाछो पृथ्वीकायपणे उत्पन्न थाय, त्यांथी पाछो फरीने अप्कायादिक त्रणमांथी कोइ एकने विषे उत्पन्न थाय. ए प्रमाणे पृथ्वीकाय जीव एकांतरे अप्कायिकादिक त्रणमांथीं कोइ एकने विषे उत्पन्न थाय तो उत्कर्षथी असंख्याता भव सुधी भ्रमण करे छे. ए ज प्रमाणे अप. काय, वायुकाय अने अग्निकायना जीवो पृथ्वीकायादिक त्रण कायामांना कोइ एकने विषे उत्पन्न थाय तो दरेक उत्कृष्टपणे असं. ख्याता भव पूरे छे. तथा वनस्पतिकायिक जीवो पृथिव्यादिक चार कायिकमांना दरैकने विषे एकांतर भवनी उत्पत्तिए करीने उत्कर्षथी असंख्याता भव पूरे छे तथा पृथ्वा कायादिक चारे का. याना दरेक जीवो वनस्पविकायने विषे एकांतरे उत्पन्न भय तो उत्कर्षयी असंख्यावा भव पूरे छे. तथा वनस्पतिकायना जीवो