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मूल तथा मापांतर.
(२२९.)
हवे सात गतिद्वार कहे छ:चउसुवि गइसुपण पण, खाइअपरिणाम हुँति सिद्धीए।
अह जीवेसु अ.भावे, भणामि गुणठाण रूवेसु ॥१०॥ घउसुवि-धारेमा पण सिद्धीए-सिखगतिमां भजामि-कहुं छु गहसु-गतिमा
अह-हवे पण पण-पांच पांच
| मुणठाणरूवेनु-गुणखाइअ-क्षायिक जोवेसु-जीवोमां । स्थान रुप ___ अर्थ:-चारे गतिमां पांच पांच भावो होय छे. सिद्धगतिमां क्षायिक अने पारिणामिक होय छे. हवे गुणस्थान रूप जीवोमां भावो कहुं छु. १०
विवेचनः-नारकी, तियेच, मनुष्य अने देवता ए चारे गतिमां पांचे भाव होय छे ते आवी रीतेः-औपशमिक भावे उपशम समकीत १, क्षायिक भावे क्षायिक सम्यकत्व २, क्षायोपशमिक भावे इन्द्रियादि ३, नरक गत्यादि औदयिक भावे, जोवत्वादि पारिणामिक भावे. पांचमी सिद्धगतिमां क्षायिक अने पारिणामिक ए वे भाव होय छे. तेमां केवलज्ञानादि क्षायिकभावे अने जीवत्वादि पारिणामिक भावे. हवे गुणस्थानरुप जीवोमां भावो कहुं हु. १०.
प्रथम गुणस्थानकोमा मूलभेद कहे छे:-- मीसोदय परिणामा, एए भावा भवन्ति पढमतिगे। अग्गे अठसु पणपण, उवसम विणु हुंति खीणमि॥११॥ खइयोदय परिणामा, तिन्निय भावा भवन्ति चरमदुगे । एसिं उत्तरभेआ, भणामि मिच्छाइ गुणठाणे ॥१२॥ पए-प
अठसु-आठ गुणठाणे । पसि-एमना भवंति- होय छे खीमि-क्षीणमोहे | उत्सरमेआ-उत्तरभेद पढमतिगे-प्रथमनाविणु-विनामिच्छाइ-मिथ्या. पण गुण ठाणे खाय-सायिक
स्वादि बग्गे-आगळ. चरमदुगे-छेल्लामा